भले औपचारिक रूप से अभी 18वीं लोकसभा की चुनावी तारीखों का ऐलान बाकी हो, लेकिन भाजपा और कांग्रेस सहित देश की सभी छोटी बड़ी पार्टियां अनौपचारिक चुनाव प्रचार ही नहीं, मेल-मिलाप से लेकर जोड़-घटाव तक की सभी गतिविधयों में सक्रिय हो चुकी हैं।
प्रधानमंत्री मोदी, जिनके लिए जरूरी नहीं है कि भाजपा औपचारिक रूप से उन्हें अगले प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करे, वह बिना घोषित पीएम फेस ही नहीं सब कुछ हैं। ऐसे जाहिर है, पिछले दो लोकसभा चुनावों की तरह इस बार भी प्रचार की कमान प्रधानमंत्री मोदी के हाथों में ही है और उन्होंने राममंदिर की औपचारिक प्राण प्रतिष्ठा के बाद से ही चुनाव प्रचार की शुरुआत कर दी है।
पिछले एक पखवाड़े में करीब आधा दर्जन जनसभाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने आगामी चुनावों का एक मनोवैज्ञानिक नैरेटिव या आख्यान भी गढ़ दिया है, ‘अब की बार चार सौ पार’। भले कुछ लोग कह रहे हों कि यह तो महज नारा है, इससे क्या होता है?
निश्चित रूप से इतना कहने भर से नहीं मान लिया जाएगा कि भाजपा को 400 सीटें मिल गईं, जब तक लोकसभा चुनावों के नतीजे नहीं आ जाएंगे, उस घड़ी तक भी और हो सकता है उसके बाद भी यह आक्रामक नारा भर ही रहे, लेकिन इस नारे के अपने मनोवैज्ञानिक अर्थ भी हैं।
आज अगर आम लोगों से लेकर राजनीतिक पंडितों तक को इस नारे ‘अबकी बार चार सौ पार’ ने खुद पर सोचने के लिए ही नहीं बल्कि हर हाल में चर्चा करने तक के लिए बाध्य कर दिया है, तो मान लेना चाहिए कि इस तरह के आक्रामक नारों की अपनी कुछ ताकत होती है।
अनगिनत ऐसे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मौजूद हैं, जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि कोई भी लड़ाई वास्तविक रूप में जीतने के पहले मनोवैज्ञानिक रूप से जीतनी जरूरी है। यह उसी मनोवैज्ञानिक जंग का मोर्चा है। पिछले दो आम चुनावों में भी इस मोर्चे की न केवल मौजूदगी रही है बल्कि इसकी शुरुआती मजबूती से ही भाजपा ने शानदार तरीके से पिछले दो चुनाव जीते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही तीसरी बार भी भाजपा ने यह मजबूत मोर्चा खोल चुकी है। अगर आम लोगों से लेकर खास लोगों तक, राह चलते लोगों से लेकर राजनीतिक पंडितों तक को इस नारे ने प्रतिक्रिया करने को मजबूर कर दिया है तो साफ है कि भाजपा जो चाहती थी वही हो रहा है दूसरे शब्दों में तीर बिलकुल निशाने पर लगा है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार तीसरी बार विपक्ष के विरुद्ध एक अपरहैंड पोजीशन ले चुकी है।
इसे अगर भाजपा का एजेंडा न भी कहें तो यह तो कह ही सकते हैं कि उसने सवाल उछाल दिया विपक्ष अब जवाब ही दे सकता है, सवाल करने की पहल भाजपा ने छीन ली है। यह उसी तरह विजयी नैरेटिव साबित हो सकता है, जैसा कि 2014 में ‘अबकी बार मोदी सरकार’ और 2019 में ‘एक बार फिर मोदी सरकार’ साबित हुए थे।
साल 2014 में भाजपा ने सिर्फ सरकार बनाने के लिए बहुमत ही नहीं जुटाया था बल्कि 30 सालों से चली आ रही खंडित जनादेश की परंपरा को भी ध्वस्त कर दिया था। साल 1984 के बाद भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी जो अकेले दम पर सरकार बनाने की काबिलियत हासिल कर सकी।
1984 में कांग्रेस ने 404 सीटें हासिल की थी, इसके बाद 2014 में भाजपा ने अकेले अपने दम पर सरकार बनाने के लिए जरूरी 272 का मैजिक फिगर पार किया था। साल 2014 में भाजपा ने जहां अकेले दम पर 282 सीटें, वहीं सहयोगियों की मदद से एनडीए ने 336 जीती थीं। साल 2014 भाजपा ने वहीं पहली बार उसने 30 फीसदी से ज्यादा मत प्रतिशत और 17 करोड़ से ज्यादा वोट हासिल करके सही मायनों में कांग्रेस के अच्छे दिनों के विकल्प के रूप में उभरी थी।
भाजपा को इस साल भाजपा को अपने सहयोगियों के भी समर्थन की जरूरत नहीं थी। लेकिन भाजपा ने गठबंधन का धर्म निभाते हुए सभी सहयोगी पार्टियों को सत्ता में हिस्सेदार बनाया था। 5 साल बाद 2019 में एक बार फिर से प्रधानमंत्री मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के चलते भाजपा न सिर्फ बहुमत हासिल किया बल्कि 2014 से भी 23 सीटें ज्यादा लाते हुए 303 सीटें अकेली जीतीं और अब तक का सबसे ज्यादा बहुमत करीब 38 फीसदी मत और 22 करोड़ 70 लाख वोट हासिल किए।
इन दो अनुभवों को देखते हुए जिन चुनावी पंडितों का मानना है कि भाजपा का नया नारा ‘अबकी बार चार सौ पार’ न सिर्फ नारा है। वह गलती कर रहे हैं, क्योंकि पिछले दो बार के नारे भी चुनावी नारे ही थे, जिन्होंने अंततः भाजपा के लिए खुद को हकीकत में तब्दील कर दिया।
इसलिए भले अबकी बार चार सौ पार का नारा सिर्फ नारा ही हो, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह एक भरपूर मनोवैज्ञानिक वॉर भी है। और दुनिया के सारे बड़े रणनीतिकार एक स्वर में यही कहते हैं कि दुश्मन को हराने के लिए पहले उसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर डिमोरलाइज्ड कर दिया जाए तो उसकी वास्तविक ताकत भी आधी रह जाती है।
हालांकि गणित के नजरिये से सोचने पर लगता है कि भाजपा आखिर चार सौ पार सीटें कहां से लाएगी? क्योंकि उत्तर भारत में जहां उसका प्रभाव है, वह अपने अधिकतम या कहें उच्च प्रदर्शन पर काबिज है, गुजरात और राजस्थान जैसे प्रदेशों में उसकी सभी लोकसभा सीटें हैं और उत्तर प्रदेश में 80 फीसदी से ज्यादा। जबकि बिहार में फिर से लौट आए पुराने सहयोगी नीतीश कुमार के साथ मिलकर उनकी 40 में 39 सीटें पिछले लोकसभा में रही हैं।
यहां तक कि बंगाल जैसे प्रदेश में जहां लंबे समय तक भाजपा की दाल नहीं गली, वहां भी उसने पिछले चुनाव में 18 सीटें जीती थीं। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा अधिकतम सीटें हासिल कर चुकी हैं।
फिर आखिरकार उसके चार सौ पार के नारे के लिए नई सीटें कहां से आयेगी? जाहिर है विंध्य पार का राजनीतिक भूगोल ही इसके निशाने मे आता है, जहां कि 132 सीटों में से करीब 82 सीटों पर भाजपा ने कभी खाता नहीं खोला और 74 सीटों में कभी दूसरे नंबर पर नहीं रही।
जबकि 57 सीटों पर वह कभी मुकाबले के आसपास भी नहीं पहुंची। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा बंगाल के लिए भी कभी अछूत थी और नार्थ ईस्ट के लिए भी जहां चमत्कार करते हुए भाजपा ने पिछली बार न सिर्फ 18 लोकसभा सीटें जीतीं बल्कि विधानसभा चुनाव में भी टीएमसी के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी।
सवाल है इस चमत्कार के पहले इस पर कौन भरोसा कर रहा था? तो अगर भाजपा इस बार केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से ज्यादा सीटें जीतकर लाने की बात कर रही है, तो यह महज व्यंग्य या मजाक का विषय नहीं है।
देश के किसी भी राजनीतिक विचार के लिए देश का कोई भी कोना हमेशा छूटा रहेगा, यह कोई कानून नहीं है। ऐसे में अगर भाजपा इस बार केरल में खाता खोलती है, तमिलनाडु में अपना प्रभाव जमाती है और आंध्र तथा तेलंगाना में चमत्कार करती है, तो भला इस पर आश्चर्य क्यों होना चाहिए? और अगर ऐसा नहीं करती, तो वह अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं और नेताओं को बड़े लक्ष्य से प्रेरित करना चाहती है, तो इसे क्यों न एक ताकतवर और सक्रिय रणनीति मानना चाहिए? लब्बोलुआब यह है कि सिर्फ नारा, नारा भर नहीं हो सकता। पिछले दो बार की तरह यह नारा हकीकत का बाना भी धारण कर सकता है।
लोकमित्र गौतम