बचपन का याद है कि कांग्रेस का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी हुआ करता था जो पार्टी के विभाजन के बाद गाय बछड़ा हो गया और अब हाथ है। अनेक पशु प्रेमी एक्टिविस्ट्स किसी भी राजनीतिक दल को जानवर या पक्षी बतौर चुनाव निशान देने के पक्ष में न थे। उनका तर्क था कि पार्टियां पशुओं को अपनी रैलीयों में घुमाती हैं, उन पर नारे पेंट करती हैं या उनके विरोधी दल उनके चुनाव चिह्न (पशु) की हत्या करते हैं।
इसलिए चुनाव आयोग ने 1991 के बाद पशु-पक्षियों को चुनाव चिह्न बनाने पर रोक लगा दी। आज इसके केवल तीन अपवाद हैं- हाथी (बसपा), शेर (एमजीपी) और मुर्गा (नागा पीपल्स फ्रंट)। लेकिन इसके बावजूद चुनाव निशानों का संसार रंगीन, दिलचस्प और मस्त है, जो कहीं प्रत्याशियों को सम्मान दिलाता है, तो कहीं उनके मज़ाक का कारण भी बन जाता है।
दूसरे चरण के मतदान से पहले मैं गौतम बुद्ध नगर में ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहा था कि मेरी मुलाक़ात अखिल भारतीय परिवार पार्टी के प्रत्याशी मनीष कुमार द्वेदी से हो गई जो पेशे से वकील हैं। वह चुनाव प्रचार कर रहे थे और उनके समर्थक पम्फ्लेट्स बांट रहे थे, जिन पर उनकी तस्वीर के साथ उनका चुनाव चिह्न चाय केतली भी था। 31-वर्षीय मनीष पिछले दो वर्षों से छोटे व्यापारियों की आवाज़ उठा रहे हैं, जो कोविड के कारण कर्ज़ में डूबे हुए हैं।
मनीष ने बताया, “बड़े कार्पोरेट्स का कर्ज़ अक्सर माफ कर दिया जाता है, जबकि छोटे व्यापारियों को कोई राहत नहीं मिलती है और वह बैंक ऋण व क्रेडिट कार्ड्स बिल अदा करने के लिए संघर्ष करते रहते हैं।” इसी मुद्दे को लेकर उनकी पार्टी ने सभी 543 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं और क्राउडसोर्से के माध्यम से सुझाव लेकर चाय केतली चुनाव चिह्न का चयन किया है, जो न केवल जीविकोपार्जन का प्रतीक है बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘चायवाला’ छवि पर व्यंग्य भी है।
मनीष के अनुसार, “हमारा चुनाव निशान कह रहा है कि हमें सिर्फ़ चाय नहीं चाहिए बल्कि पूरी केतली चाहिए।” वर्तमान आम चुनाव में केवल चाय केतली ही अतरंगी चुनाव निशान नहीं है। घर में रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों से लेकर गियर व उपकरणों तक के सहारे प्रत्याशी अपनी किस्मत आज़मा रहे हैं। गौरतलब है कि चुनावों में चिह्नों का प्रयोग उस दौर में शुरू हुआ था।
जब भारत में साक्षरता दर मात्र 16 प्रतिशत थी ताकि उनके सहारे मतदाता अपनी पसंद की पार्टी या प्रत्याशी का चयन कर सकें। लेकिन चुनाव निशान आज भी प्रासंगिक हैं कि पार्टियों के विभाजन के बाद उन पर दावेदारी करने हेतु घटक दल अदालत तक के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं। मान्यता प्राप्त दलों को तो चुनाव चिह्न आवंटित हो जाता है, लेकिन आज़ाद उम्मीदवारों को ‘मुक्त’ चिह्नों की सूची में से चयन करना पड़ता है, जिसे चुनाव आयोग नियमित अपडेट करता रहता है। अंगूर, डम्बबेल्स, वैक्यूम क्लीनर आदि ऐसे ही ‘मुक्त’ चिह्न हैं। दशकों से इन चिह्नों को एक ही व्यक्ति ड्रा कर रहा है।
ड्राफ्ट्समैन एमएस सेठी को बैलट कमेटी ने 1952 में अनुबंध किया था और वह 1992 में रिटायर हुए। एचबी की पेंसिल से वह काग़ज़ पर चिह्न ड्रा करते रहे जो भारतीय चुनावों का आधार बन गए। हालांकि 2000 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी ड्राइंग अब भी वोटिंग मशीनों, पोस्टर्स व झंडों पर पहुंच रही हैं। चुनाव निशान भले ही मामूली हों और हाथ से बने स्केच ही दिखायी देते हों, लेकिन उनके पीछे की कहानियां अधिक जटिल हैं।
मसलन, चुरू (राजस्थान) से चुनाव लड़ रहे वकील युसूफ अली खान ने बेबी वॉकर (जिससे बच्चा चलना सीखता है) का चयन इसलिए किया ताकि वह अपने समुदाय को अपने पैरों पर खड़ा होना, चलना सिखा दें। वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि बीजेपी या कांग्रेस में से किसी ने भी राजस्थान में कोई मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा है, तो वह राज्य की 9 प्रतिशत आबादी को आवाज़ देने के लिए मैदान में आ गए। शिक्षा व छात्रवृत्ति अवसरों में वृद्धि उनकी वरीयता है।
दूसरी ओर तारानगर में समाज सेवी निरंजन सिंह राठौर अपने बेल्ट चुनाव चिह्न के बारे में कहते हैं, “कोई भी काम करने से पहले कमर कसनी पड़ती है। बेल्ट इसीलिए चाहिए।” अनुसूचित जनजाति से संबंधित राठौर का मानना है कि सरकारें आयी व गयीं, लेकिन सामाजिक न्याय व आरक्षण के लाभ अभी तक अनेक क्षेत्रों व वर्गों तक नहीं पहुंचे हैं। वह अपने ‘पहले व अंतिम’ चुनाव में डाटा लेकर घर घर जा रहे हैं और लोगों से आग्रह कर रहे हैं कि वह परिवर्तन लाने के लिए बेल्ट से कमर कस लें।
अलीगढ़ में पंडित केशव देव तो चप्पलों का हार अपने गले में डालकर घूमे ताकि कोई उनका चुनाव चिह्न चप्पल भूल न जाए। लेकिन लखीमपुर में देबानाथ पैठ के साथ समस्या यह है कि फव्वारा लेकर कैसे घूमें। बहरहाल, चुनाव निशान को लेकर ख़ूब हंसी मज़ाक व लतीफे भी हो जाते हैं। बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में जनसंघ और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर थी।
जनसंघ का चुनाव निशान दीपक था और कांग्रेस के प्रत्याशी स्वतंत्रता सैनानी हाफिज़ इब्राहिम के पुत्र थे। इस चुनाव में जो लतीफा हुआ उसका आनंद लेने के लिए एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दोहराना आवश्यक है। बेबीलोन के क्रूर शासक नमरूद ने पैग़म्बर इब्राहिम को आग में ज़िन्दा जलाने का प्रयास किया था, लेकिन वह आग को ठंडा करने व अपनी जान बचाने में सफल रहे।
अब बिजनौर के चुनाव में हाफिज़ इब्राहिम की आल (संतान, बेटे) ने जनसंघ के प्रत्याशी को पराजित कर दिया। इस पर हाफिज़ अम्बालवी ने शेर पढ़ा- “अगरचे आतिशे-नमरूद से कम न थी दीपक की लौ/लेकिन आले-इब्राहिम ने उसको भी ठंडा कर दिया।” और मतगणना केंद्र पर मौजूद सबकी हंसी छूट गई।
नरेंद्र शर्मा