स्कॉटलैंड स्थित एडिनबरा यूनिवर्सिटी के अनुसंधान में लगे वैज्ञानिक उम्मीद से हैं कि जल्द ही वयस्कों के बोन मेरो में बढ़ने वाले स्टेम सेल से यह कृत्रिम रक्त बना लिया जाएगा, जो ओ नेगेटिव कैटेगिरी का होगा और दुनिया के करीब 98 फीसदी जरूरतमंदों के काम आएगा।
दरअसल कृत्रिम रक्त एक ऐसा उत्पाद है, जिसे लाल रक्त कोशिकाओं को प्रतिस्थापित करने के लिए डिजाइन किया जाना है, जिनका काम पूरे शरीर में ऑक्सीजन और कार्बनडाऑक्साइड का परिवहन करना होता है। इसीलिए वैज्ञानिक हीमोग्लोबिन आधारित ऑक्सीजन वाहक या पेरफ्लोरोकार्बन की खोज में हैं।
हालांकि शेफील्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि वह एक कृत्रिम ‘प्लास्टिक रक्त’ विकसित कर रहे हैं, जो आपात स्थिति में पलभर में इस्तेमाल किया जा सकता है।
वैसे वैज्ञानिकों की खोज का यह सफर 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में (साल 1883 में) रिंगर घोल के निर्माण के साथ ही न सिर्फ शुरू हो गया था बल्कि लगने लगा था कि कृत्रिम खून का विकास अब कुछ ही कदम दूर है।
क्यूंकि रिंगर के घोल ने वैज्ञानिकों को रक्त की शरीर में भूमिका को अच्छी तरह से उजागर कर दिया था, वैज्ञानिक समझ गये थे कि वास्तव में रक्त शरीर में पावर ऑफ हाइड्रोजन को संतुलित करता है और यह काम वह अपने आइसोटोनिक दबाव से करता है।
रिंगर घोल पानी में घुले कई लवणों का मिश्रण होता है। यह किसी जानवर के शरीर के तरल पदार्थ के सापेक्ष एक आईसोटोनिक घोल बनाने के उद्देश्य से तैयार किया जाता है। इसमें सोडियम क्लोराइड, पौटेशियम क्लोराइड, कैल्शियम क्लोराइड और सोडियम बाई कार्बोनेट होता है।
इस घोल का इस्तेमाल पीएच को संतुलित करने के लिए किया जाता है। पीएच दरअसल पाॅवर ऑफ हाइड्रोजन यानी की हाइड्रोजन की शक्ति होती है। रिंग का घोल दरअसल किसी को लगे आघात, सर्जरी या जलने के मामले में हुए रक्त नुकसान की भरपाई के लिए होता है। यह घोल गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति में हुए रक्त के नुकसान की भरपाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि इसमें रक्त के समान दबाव या वजन होता है।
कुछ साल पहले अमेरिका में डाक्टरों ने एक 20 वर्षीय महिला बेस लिन, जो कि एक सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो जाने के कारण ट्रॉमैटिक ब्रेन इंजरी (टीबीआई) से गुजरी थी और चूंकि उसे बचाने के लिए तुरंत सर्जरी की जरूरत थी, इसलिए डाक्टरों ने उसकी मां से अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) से गैर मान्यता प्राप्त एक दवाई इस्तेमाल करने की अनुमति मांगी थी, जो उनके मुताबिक सर्जरी के समय बेस लिन के दिमाग को ऑक्सीजन उपलब्ध करा सकती थी।
लिन की मां द्वारा अनुमति दिए जाने के बाद डाक्टरों ने सर्जरी के लिए इस दवा यानी कृत्रिम रक्त ‘ऑक्सीसाइट’ का इस्तेमाल किया। यह वही कृत्रिम रक्त था, जिसके तत्वों को वर्जिनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक ने जानवरों पर किए गए परीक्षण के दौरान, दिमाग की क्षति से संबंधित करीबन आधे प्रभावों को नाकाम करने में सफलता पाई थी। तब तक कृत्रिम रक्त के परिवार में ऑक्सीसाइट सबसे नया उत्पाद था।
ऑक्सीसाइट से फेज 2 में इलाज किए गए आठ मरीजों में से मात्र एक की मृत्यु हुई थी और जीवित रोगियों में ठीक होने की क्षमता बेहतर रही। बेस लिन के मामले में भी इसका इस्तेमाल सफल रहा था, क्योंकि भयानक रूप से दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद भी दो हफ्तों बाद उसके अंदर पुनः चेतना आ गई थी और उसने अपने लकवाग्रस्त दाहिने हिस्से को भी बेहतर पाया था।
इस कारण वह अनुमान से भी कम समय में वापस ठीक होने लगी थी। लेकिन इसके बाद भी एफडीए द्वारा इसके इस्तेमाल के लिए दी गई अनुमति को 1994 में वापस ले लिया और साल 2023 के दिसंबर माह तक दुनिया मे ऐसा कोई कृत्रिम खून उपलब्ध नहीं था, जिसे अमरीका का खाद्य एवं औषधि प्रशासन विभाग शरीर मे ऑक्सीजन के वाहक के रक्त के विकल्प में इस्तेमाल करने की अनुमति दे सके।
एफडीए ने 1989 में जिस पेराफ्लूरोकार्बन आधारित उत्पाद फ्लुओसोल-डीए-20 को मंजूरी दी थी, उसे भी महज 5 सालों के भीतर वापस ले लिया गया था। इससे साफ है कि भले तमाम हैरान करने वाले जटिल आविष्कार विज्ञान ने आराम से कर दिए हों या बहुत से ऐसे आविष्कार जिनकी उपयोगिता के बारे में पहले ज्यादा कुछ पता नहीं था।