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Home » Blog » संपादकीय » आधा कंप्यूटर, आधा इंसान, कहानी दुनिया के पहले मशीन मानव की

संपादकीय

आधा कंप्यूटर, आधा इंसान, कहानी दुनिया के पहले मशीन मानव की

Jagruk Times
Last updated: March 7, 2024 6:20 pm
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कहानी दुनिया के पहले मशीन मानव की
कहानी दुनिया के पहले मशीन मानव की
आधा कंप्यूटर, आधा इंसान, कहानी दुनिया के पहले मशीन मानव की 3

वह व्यक्ति अपने कमरे के दरवाजे के सामने आता है, तो दरवाजा अपने आप खुल जाता है। वह अपनी कुर्सी में अभी ठीक से बैठ भी नहीं पाता कि उसकी टेबल पर लगा लैंप खुद-ब-खुद जल जाता है। उसका कंप्यूटर घर के किसी पुराने नौकर की तरह उसकी अनुपस्थिति में आई ई-मेल्स को उसके सामने कर देता है ताकि वह व्यक्ति उन पर एक नजर डाल ले।

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अगर शाम को अंधेरा हो रहा हो और वह व्यक्ति अपने कमरे से टहलता हुआ बरामदे तक आ जाता है तो बरामदे की लाइटें अपने आप जल जाती हैं, इसके लिए न तो उसे किसी इशारे की जरूरत होती है, न ही ताली बजाने जैसी कोई हरकत करनी पड़ती है। यहां तक कि वह लाइटों की तरफ आंख उठाकर देखता भी नहीं। यही स्थिति तब होती है जब वह अपनी कार के पास पहुंचता है। वह व्यक्ति अपनी कार के दरवाजे के सामने आया नहीं कि कार का दरवाजा अपने आप खुल जाता है।

यह न तो किसी भूत-प्रेत या चमत्कारी सिद्धपुरुष का जिक्र है, न ही किसी फिल्मी नायक की गाथा और न ही किसी रोमांचक उपन्यास का कथानक। यह राईरत्ती सच्ची कहानी उस साइबरनेटिक प्रोफेसर केविन वारविक की है, जो आज की चमत्कारिक ब्रेन चिप न्यूरालिंक के हंगामे से करीब 26 साल पहले घटित हुई थी।

आज की तारीख में प्रो. केविन वारविक कोवेंट्री और रीडिंग यूनिवर्सिटी में एमेरिटस प्रोफेसर हैं। वह एक चार्टर्ड इंजीनियर और इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के फेलो भी हैं। उनके अनुसंधान क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता, नियंत्रण, रोबोटिक्स और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग शामिल हैं।

वह न केवल ऊपर वर्णित चमत्कारों को अंजाम देते हैं, बल्कि दुनिया के ऐसे इंसान भी हैं, जिनका दिमाग कम्प्यूटराइज्ड मशीन की तरह फंक्शन करता है। उनकी याद्दाश्त में उनके दिमाग के साथ उनके शरीर में इंजेक्ट कंप्यूटर चिप की भी भूमिका है। वह एक साथ, एक ही समय में कई लोगों से संवाद कर लेते हैं क्योंकि वह आधे इंसान हैं और आधे कंप्यूटर।

जी हां, दुनिया के पहले मशीनी मानव यानी प्रथम सायबोर्ग। दुनिया बदलने के लिए खुद को सायबोर्ग यानी मशीनी मानव में परिवर्तित करने की प्रो. वारविक की यह कहानी 26 साल पहले 24 अगस्त 1998 को शुरू हुई थी। तब प्रो. वारविक 44 साल के थे। लंदन के पश्चिमी छोर पर स्थित रीडिंग विश्वविद्यालय के साइबरनेटिक्स विभाग के प्रो. वारविक ने एक दिन अचानक यह निर्णय लिया कि वह अपने शरीर में कंप्यूटर चिप्स प्रत्यारोपित कराएंगे, ताकि अपने आपको किसी प्रोग्राम की तरह स्वयं संचालित कर सकें।

प्रो.वारविक की इस घोषणा को उनके सहकर्मियों और रीडिंग विश्वविद्यालय के स्टाफ के लोगों ने गंभीरता से लिया। क्योंकि लोगों को पता था कि पिछले बीस सालों से प्रो. वारविक दिनरात इसी उधेड़बुन में खोये रहते थे कि आदमी को मशीन की तरह किस तरह आटोमेटेड किया जा सकता है।

प्रो. वारविक की दिन-रात की इस धुन को देखकर उनके कई सहकर्मी और विश्वविद्यालय के लोग उन्हें पीठ पीछे अर्धपागल तक कहते थे। प्रो. वारविक को अपनी इन उपमाओं और पीठ पीछे उड़ाए जाने वाले मजाकों को लेकर कतई चिंता नहीं थी। वह जानते थे कि दुनिया में हर आविष्कारक को पहले इस तरह की व्यंग्योक्तियां तो झेलनी ही पड़ती हैं, इसलिए उन्होंने इस सब पर कान नहीं दिया और अपने काम में लगे रहे। वैसे प्रो. वारविक ने कंप्यूटर के साथ उलझना उस समय शुरू कर दिया था, जब वह महज 18 साल के थे।

बीस साल की उम्र में उन्होंने अपने प्राध्यापक पिता के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम का आविष्कार किया था। उनकी प्रतिभा पर किसी को शक तो नहीं था लेकिन उन्होंने जो घोषणा की थी, वह किसी भी कल्पना से ज्यादा फंतासीपूर्ण थी। इसीलिए उस पर लोगों को सहज विश्वास नहीं हो रहा था। उन पर अगर कोई पूरी तरह से या कुछ हद तक विश्वास कर रहा था तो वह उनकी पत्नी इरिना ही थीं।

इरिना खुद कंप्यूटर की विशेषज्ञ हैं और प्रो. केविन वारविक की तमाम कल्पनाओं और अवधारणाओं में भागीदार भी। इरिना के अलावा रीडिंग यूनिवर्सिटी के साइबरनेटिक्स विषय के कुछ विद्यार्थी भी उन पर यकीन कर रहे थे। ये विद्यार्थी उनके इस अति महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में अध्ययन और कल्पना के स्तर पर सहभागी थे।

साइबरनेटिक, कंप्यूटर विज्ञान की उस शाखा को कहते हैं, जिसमें कंप्यूटर तकनीक को मानविकी के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। साइबरनेटिक जैसा विज्ञान विषय उन दिनों तक दुनिया में कुछ गिनेचुने विश्वविद्यालयों में ही उपलब्ध था और रीडिंग विश्वविद्यालय इस मामले में विशिष्ट था।

लिहाजा जब रीडिंग विश्वविद्यालय के साइबरनेटिक्स विभाग के अध्यक्ष केविन वारविक ने यह घोषणा की कि वह 24 अगस्त 1998 को अपने शरीर में आपरेशन के जरिए दो माइक्रोचिप्स प्रत्यारोपित कराएंगे ताकि वे कंप्यूटर की तरह प्रतिक्रिया और व्यवहार कर सकें, तो पूरी दुनिया की नजरें उन पर टिक गईं।

इस ऐतिहासिक आपरेशन के दौरान कि वे पूरे होशोहवास में थे, जब उनकी बांह के नीचे एक चमत्कार की प्रस्थापना हो रही थी। डा. बाउलस ने प्रो. वारविक से पूछा पूरे साढ़े पांच घंटे के बाद जब डा. जार्ज आपरेशन थियेटर से बाहर आए, तो उनके चेहरे पर गर्वीली मुस्कान देखकर आपरेशन थियेटर के बाहर मौजूद हुजूम की खुशी की कोई सीमा न रही।

इस सफलता को सुनकर इरिना की आंखों से आंसुओं की धार ही बह निकली। यही हालत उस फोटोग्राफर की भी थी, जो इस ऐतिहासिक क्षण की तस्वीरें उतार रहा था। इस सफल आपरेशन के बाद ब्रिटिश मेडिकल काउंसिल ने डा. जार्ज बाउलस को एक पत्र भेजा जिसमें उन्हें बधाई भी दी गए थी और कानून तोड़ने का जिम्मेदार भी ठहराया था।

डॉ जार्ज के मुताबिक,उम्मीद से हटकर यह एक मामूली और सफल आपरेशन था। इस प्रत्यारोपण के तुरंत बाद प्रो. वारविक ने बीबीसी रेडियो और टीवी को एक इंटरव्यू दिया था। इंटरव्यू के साथ प्रो. वारविक की समूची आपरेशन कवरेज को भी दिखा गया। बीबीसी के साथ ही न जाने कितने रेडियो और टीवी चौनलों ने प्रो. वारविक का इस संबंध में साक्षात्कार लिया और सभी साक्षात्कारों के दौरान इरिना बायीं बांह की तरफ उनके साथ मौजूद रही।

जब मीडिया वालों ने प्रो. वारविक से पूछा कि इस सबसे क्या होने वाला है,तो प्रो. ने किसी दार्शनिक की तरह अबूझ सा उत्तर दिया, ‘वास्तव में मुझे खुद नहीं पता कि क्या होने जा रहा है लेकिन कुछ ऐसा जरूर होगा कि दुनिया बदल जायेगी।’ तीन एमएम मोटी और तीन सेंटीमीटर लंबी माइक्रोचिप्स ट्रांसपोंडर जो प्रो. वारविक की बांह से नीचे लगायी गए, वह एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक क्वाइल से जुड़ी थी।

अगर उसकी लागत देखी जाये, तो तब यह महज दो सौ रुपये से ज्यादा की नहीं थी, मगर यह मामूली सी चीज प्रो. वारविक की समूची दुनिया को बदलने के लिए काफी थी। नौवें दिन प्रो. वारविक के शरीर ने ऐसे रेडियो सिग्नल भेजने शुरू कर दिये जो अपने आप ही ट्रांसमिट हो रहे थे। और इनके जरिए पहले से प्रोग्राम की गए तमाम गतिविधियां स्वयं ही संचालित होनी शुरू हो गएं।

प्रो. वारविक के शरीर में जो दो माइक्रोचिप्स प्रत्यारोपित की गए थीं, उनमें लगे विद्युत चुंबकीय तार ने उनके शरीर से विद्युतीय तरंगें हासिल करनी शुरू कर दी। फलस्वरूप उन चिप्स ने अपना काम करना शुरू कर दिया और वे तमाम चमत्कारी गतिविधियां आरंभ हो गएं जिनके लिए आज प्रो.वारविक को लोग अचंभे से देखते हैं।

जब बाहर से सेंसर्स सिग्नल प्रो. वारविक के शरीर में मौजूद माइक्रोचिप्स से टकराते हैं, तो उनके शरीर में 64 बिट क्षमता के विद्युत चुंबकीय सिगनल पैदा होते हैं और इस तरह प्रो. वारविक के तमाम काम स्वतः होने लगते हैं। जैसे कोई अदृश्य शक्ति उन्हें कर रही हो। मसलन जब वह अपने पर्सनल कंप्यूटर के सामने पहुंचते हैं, तो उन्हें कंप्यूटर का बटन दबाने की जरूरत नहीं पड़ती।

कंप्यूटर पहले से उनके शरीर में लगे माइक्रोचिप्स के साथ प्रोग्राम किया हुआ है। जैसे ही उनके शरीर के अंदर मौजूद चिपों की तरंगे उनके पर्सनल कंप्यूटर से टकराती हैं, तो वह स्वतः ही खुल जाता है। उन्हें कभी यह बताने की जरूरत नहीं पड़ती कि वह अपने आफिस में पहुंच गये हैं। उनकी सेक्रेटरी के कंप्यूटर में यह सिग्नल आ जाता है कि प्रो. वारविक दफ्तर में पहुंच गये हैं।

यही नहीं, प्रो. वारविक जिस कमरे में बैठते हैं, उसके दरवाजे भी उनके शरीर में लगी चिप्स के साथ हुड़े हुए हैं। इसलिए दरवाजे के सामने उनके पहुंचते ही वह अपने आप खुल जाता है और उनके कमरे में प्रवेश करते ही गुड मार्निंग की आवाज उभरती है। प्रो. वारविक ने न केवल अपने विभाग के तमाम कंप्यूटरों से अपने आपको कनेक्ट कर रखा है, बल्कि उनके घर में मौजूद कंप्यूटरों का भी हमेशा उनके साथ संबंध बना रहता है।

इस वजह से अगर प्रो. वारविक अपने विभाग में कहीं हों, उनको किसी को ढूंढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती। उनके शरीर के साथ हर किसी का संपर्क बना रहता है। यहां तक कि घर में बैठी उनकी पत्नी को यह बात हर क्षण पता रहती है कि उनके पति किस जगह मौजूद हैं। दिसंबर 1998 में प्रो. वारविक भारत आये थे, यहां उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों के एक वार्षिक समारोह में व्याख्यान देना था।

तब बहुत सारे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर उनसे यह जानना चाहते थे कि शरीर में चिप्स ट्रांसपोंडर फिट कराने के बाद क्या वास्तव में प्रो. वारविक इंसानों की तरह ही अनुभूतियों से भरे हैं या फिर उनके एहसास भी मशीनी हो गये हैं। यह जांचने के लिए भारतीय इंजीनियरों ने एक मजेदार कारनामा किया। उन्होंने प्रो. वारविक को धोखे से मिर्च के पकौड़े खिला दिये। प्रोफेसर मिर्च खाते ही ऐसे उछल पड़े जैसे उनके पैर जलते हुए अंगारे पर पड़ गये हों।

यही नहीं, उनके मुंह में तीखी मिर्च की जलन से फफोले पड़ गये और दिसंबर की हाड़ कंपा देने वाली सर्दी के बावजूद प्रो. वारविक के चेहरे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं। भारतीय इंजीनियरों को इससे यह अहसास हो गया कि प्रो. वारविक भले मशीनी रूप से अतिरिक्त संवेदनशील और कार्यदक्ष हो गये हों लेकिन उनमें मानवीय एहसास पूरी तरह कायम है। प्रो. वारविक के पास हर दिन सैकड़ों पत्र और ई-मेल आते हैं।

दुनिया के कोने-कोने के लोग उनसे न केवल उनके चिप अनुभवों के बारे में पूछते हैं बल्कि इस तकनीक के जरिए अपनी उम्र बढ़ाने और लंबे समय तक स्वस्थ रहने के नुस्खे भी पूछते हैं। मजेदार बात यह है कि 1998 में जब प्रो. वारविक ने अपने शरीर में दो चिप प्रत्यारोपित कराये थे, तब से अब तक यानी उनके शारीरिक क्षरण में काफी कमी आयी है। इसे दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि उनके बुढ़ापे की दर में क्रांतिकारी धीमापन आया है।

लंदन के एनाटोमी इंस्टीच्यूट ने उनके शरीर का पिछले 25 सालों में कई बार चेकअप किया है और पाया है कि दूसरे आम आदमियों के मुकाबले उनके शरीर के क्षरण 20 से 25 प्रतिशत तक की गिरावट हुई है। उनकी उम्र के लोग पिछले 25 सालों में जितने बूढ़े हुए हैं, प्रो. वारविक उस तुलना में करीब 25 प्रतिशत कम बूढ़े हुए हैं।

प्रो. वारविक के इर्दगिर्द रहने वालों का मानना है कि जब से प्रो. वारविक ने अपने शरीर में चिप्स प्रत्यारोपित करवायी है तब से उनमें जज्बात की दर और क्षमता दोनों ही बढ़ गए हैं। पहले प्रो. वारविक अपने दोस्तों को कभीकभार ही फोन करते थे लेकिन अब वह न केवल नियमित रूप से अपने दोस्तों को फोन करते हैं बल्कि उन्हें अपने दोस्तों की जिंदगी से जुड़ी छोटी छोटी बात भी याद रहती है। प्रो. वारविक अपने दोनों बच्चों को भी पहले से ज्यादा तरजीह देते हैं।

उनकी पत्नी की तो वारविक के शरीर में प्रत्यारोपित इन चिपों ने दुनिया ही बदल दी है। पहले जहां प्रो. वारविक अपनी पत्नी का जन्मदिन मुश्किलभरी कोशिशों के बावजूद याद नहीं रख पाते थे, वहीं अब वह एक बार भी अपनी पत्नी का जन्मदिन नहीं भूलते।


इंटरव्यू/दुनिया के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रो.वारविक के छपे साक्षात्कारों के कुछ जरूरी सवाल-जवाब
प्र.आदमी को मशीन बनने की जरूरत क्यों है?

प्रो.वारविक- इसलिए क्योंकि अगर आदमी ने लापरवाही बरती तो सन 2050 तक इंटेलीजेंट मशीन दुनिया पर कब्जा कर लेगी। आदमी मशीनों का गुलाम हो जायेगा, इससे बचने का एक ही उपाय है आदमी खुद सायबोर्ग यानी मशीनी मानव बन जाये।

प्र.प्रत्यारोपण तकनीक का भविष्य क्या है?

प्रो.वारविक- इस तकनीक का भविष्य उज्ज्वल है। आदमी और तकनीक के बीच मौजूद पुरानी दीवारें गिर रही हैं। भविष्य में आदमी न केवल आदमी से बल्कि मशीनों से भी बातचीत कर सकेगा यह वह दुनिया होगी,जहां हमारे दिमाग की सोचने की रफ्तार और क्षमता मशीनों से तेज तथा व्यवस्थित होगी। आज पहने जानेवाले कंप्यूटर तैयार हो गये हैं। भविष्य में प्रत्यारोपित किए जा सकने वाले कंप्यूटर मौजूद होंगे।

प्र.भविष्य में किन-किन क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव की संभावना है?

प्रो.वारविक हो सकता है हमारे सोचने की क्षमता और इंटेलीजेंट मशीन के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा हो जाए। कुछ लोग इसका बहुत नकारात्मक चित्र खींच रहे हैं। मेरा मानना है कि यदि इंसान सचेत रहा तो विजेता वही रहेगा। भविष्य में लोगों को फालतू की मेहनत और व्यस्तता से छुटकारा मिलेगा। बैंक जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। फिल्में देखने जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। दुनिया सिमट जायेगी। पारंपरिक पढ़ाई और दफ्तरों का भी नामोनिशान मिट सकता है।

प्र-क्या मशीन आदमी से ज्यादा बुद्धिमान बन सकती है?

प्रो.वारविक- मैं कहता हूं कि हमें इस आशंका की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अगर ध्यान से देखें तो कारोबार, राजनीति और सेना इसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं। ये गतिविधियां और संस्थाएं समाज और उसके पारंपरिक नियंत्रण से बाहर हो रही हैं। प्रत्यारोपण की तकनीक इस आशंका से पार पाने में कारगर भूमिका निभा सकती है। हम अपनी ताकत बढ़ाकर ही किसी ताकतवर का मुकाबला कर सकते हैं।

प्र-मशीनों के वर्चस्व वाले समाज की रूपरेखा क्या होगी?

प्रो.-वारविक वहां इंसानों के फार्महाउस होंगे। हो सकता है मशीनें जोखिम के क्षेत्र में न भेजी जायें और वहां आदमियों को भेजा जाये।

लोकमित्र गौतम

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