
फाग होली के अवसर पर गाये जाने वाले वो गीत होते हैं, जिनके शब्दों में ही नहीं, लय, ध्वनि और स्टाइल में भी एक खास तरह की फागुनी मस्ती होती है। एक जमाना था जब होली का सबसे बड़ा आकर्षण गांव जवार में गाये जाने वाले ये फगुवा गीत या फाग ही होते थे। लोग महीनों पहले इनकी तैयारी करते थे और रात-रात भर इसका रियाज करते थे। जाहिर है उन दिनों मनोरंजन के दूसरे साधन कम थे या बिल्कुल ही नहीं थे।
इसलिए फागुन का महीना आते ही सिर्फ खेतों में सरसो के फूल या आम के पेड़ों पर सिर्फ बौरे ही नहीं अखुवाती थीं बल्कि लोगों के तन बदन में भी एक खास तरह झुरझुरी फूटने लगती थी, जो होली आते आते फगुवा गीतांे में फूटकर मचलने लगती थी। फाग गीत इसी मस्ती को शब्द देते थे।
फाग खास तौरपर उत्तर प्रदेश के बुदेंलखंड, अवध और ब्रज क्षेत्र के प्रमुख होली गीत होते हैं। लेकिन बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक भी इनकी संस्कृति फैली हुई थी। वक्त के साथ पुराने फाग गीतों की परंपरा तो किसी हद तक लुप्त हो गई है, लेकिन नए दौर में फिल्मी गीतों को फाग की तरह रीमिक्स करके या नए फिल्मी गानों की धुनों पर पुराने फगुवा गीतों को गाया और सुना जा रहा है।
कहना न होगा कि युवाओं के बीच खास तौरपर ये रीमिक्स फगुवा गीत खूब मशहूर हो रहे हैं। जैसे पिछली होली में ‘अब तो सजन मोहे भुला दे’, गीत को फाग की तरह रीमिक्स करके शहरों से लेकर गांव तक में खूब सुना गया। इस साल भी कई फिल्मी गीतों को फाग की शैली में ढालकर सुना जा रहा है। ब्रज शैली के फाग गीत सदियों से होली के आते ही गांवों में हर तरफ गूंजने लगते थे। अब यह नई शैली में रीमिक्स होकर भी खूब बज रहा है।
पिछले दिनों ‘हाय न देख सखी फागुन के उत्पात, दिनवो लागे आजकल पिया मिलन की रात’ जैसे फगुवा गीत को पूर्वांचल की आला गायिका सन्नो की तर्ज पर खूब पसंद किया गया और एक जमाने में बिहार का मशहूर फगुवा गीत रहा ‘मडंवा में रामजी के रंग हुई पगडिया, राम खेली, लखन खेली होली रे’ भी नई स्टाइल में रीमिक्स होकर युवाओं को खूब भाया है।
इससे साफ है वक्त भले बदल जाए लेकिन साहित्य संस्कृति में जो एक अंतर्निहित आकर्षण व नशा होता है, वह कभी कम नहीं होता। फाग या फगुवा गीत दरअसल फागुन की स्वर लहरी है। जहां भी होली धूमधाम से मनाई जाती है, वहां फागुन का नाम सुनते ही कवियों, शायरों की कलमें भी मस्ती में झूमने लगती हैं। किवदंती है कि फागुन की हवा में ही एक खास तरह का मादक नशा होता है। ठीक यही बात होली के फगुवा गीतों में भी होती है। फगुवा गीतों के अक्षर-अक्षर से प्रेम अल्हड़पन, मस्ती और मासूमियत झरती है।
यही वजह है कि होली के गीत बिना कहे प्रेम पत्र हैं। लोग अकेले या समूह में इन्हें गाते हुए एक खास तरह की ऊर्जा, एक खास तरह की तरंग से खुद को सराबोर महसूस करते हैं। इसलिए भले इनके गाने की स्टाइल वक्त के साथ बदल जाए, लेकिन इनमें मौजूद मस्ती बिल्कुल नहीं बदलती। अब इसे ही लें। चाहे जिस युग का यह फगुवा हो, लेकिन आज भी ये शब्द युवाओं को चुबंक की तरह अपनी ओर खींच लेते हैं।
रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में
हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में
मन को रंग लो रंग रंगीले कोई चित चंचल चोली में
होरी के ई धूमि मची है, सिहरो भक्तन की टोली में
रंगपंचमी का भारतीय सनातन संस्कृति में बहुत महत्व है। आम लोगों की होली के बाद इस दिन भगवान कृष्ण ने राधा रानी को अबीर, गुलाल लगाया था और उन्हें पहनने के लिए पीले वस्त्र दिए थे। तब से हर साल होलिका दहन के पांचवें दिन रंगपंचमी का पर्व मनाया जाता है। कई जगहों पर इसे देवताओं की होली भी कहा जाता है। होली का कई दिनांे तक चलने वाला त्योहार रंगपंचमी के साथ ही खत्म होता है।
रंगपंचमी का धार्मिकता से कहीं ज्यादा आध्यात्मिकता के साथ रिश्ता है। यह शरीर और आत्मा के आध्यात्मिक मिलन का प्रतीक है। जब इस दिन लोग एक दूसरे पर फूलों से निर्मित सात्विक अबीर और गुलाल फेंकते हैं, तो सभी के प्रेम के एक रंग में रंगे जाने की कल्पना की जाती है। माना जाता है कि इस दिन जो अबीर और गुलाल एक दूसरे पर फेंका जाता है, उससे लोगों में सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है और धरती में गिरे रंग और अबीर से धरती पवित्र हो जाती है। इस देव होली को भी होली के एक लघु रूप में मनाते हैं।
मुख्य होलिका दहन की तरह इस दिन भी छोटी लगभग प्रतीक के रूप में होली जलायी जाती है और इसमें वो बहुत सी सामग्री डाली जाती है, जो हवन में इस्तेमाल होती है। लेकिन इस दिन गीले रंगों से होली नहीं खेली जाती बल्कि फूलों या प्राकृतिक पत्तियों से निर्मित अबीर और गुलाल से ही होली खेलने का चलन है। चूंकि इस दिन भगवान कृष्ण ने राधा जी को पीले वस्त्र दिए थे। इसलिए इस दिन लोग मंदिरों में पीले वस्त्र धारण करके फूलों से नाचते, गाते होली खेलते हैं और वैष्णव लोग इस दिन भगवान विष्णु के लिए पीले वस्त्र अर्पित करते हैं।
बड़ी होली की तरह ही इस देव होली में भी घर को खूब साफ सुथरा किया जाता है। तरह तरह के पकवान बनाये जाते हैं। महाराष्ट्र में खास तौरपर रंगपंचमी उत्साह से मनायी जाती है, इसलिए इस दिन घरों में पूरनपोली बनती है, क्योंकि देव होली पर भगवान विष्णु को पूरनपोली से ही भोग लगाने की परंपरा है। भारत में कई जगहों पर रंगपंचमी विशेष रूप से उत्साह के साथ मनायी जाती है। मथुरा और वृंदावन में इसे लेकर सबसे ज्यादा उत्साह होता है।
इंदौर, नासिक और महाराष्ट्र के कुछ दूसरे शहरों में भी इसे खूब धूमधाम से मनाते हैं। यह चैत्र महीने की कृष्ण पंचमी भी होती है, इसलिए माना जाता है कि यह होली के बाद फसलों के लिए ऋतुओं को धन्यवाद देने का एक धार्मिक और आध्यात्मिक तरीका है। मध्य प्रदेश में इंदौर में खास तौरपर रंगपंचमी के दिन विशेष होली खेली जाती है।
इस दिन इंदौर में बड़ी धूमधाम से गेर यानी जुलूस निकाल जाता है, जिसमें हजारों किलो गुलाल खर्च होता है, लेकिन जहां दूसरी जगहों पर रंगपंचमी सूखे, अबीर और गुलाल से मनायी जाती है, वहीं इंदौर में यह पानी से भी खेली जाती है। यहां इस दिन लोग पानी में घोले गए गुलाल से लोगों को नहलाते हैं। मथुरा, वृंदावन की तरह इंदौर में भी लोग इस विशेष होली पंचमी के दिन घूमने आते हैं और स्थानीय लोगों के साथ मिलकर रंगपंचमी का आनंद लेते हैं।
इस दिन नवग्रहों की पूजा भी की जाती है और कुंडली में छिपे दोषों के खात्मे के लिए पूजा भी की जाती है। इस पर्व के पीछे एक पुराण कथा जुड़ी हुई हैं जिसके मुताबिक भगवान शिव ने जब कामदेव को, उनकी तपस्या भंग करने के दंड स्वरूप भस्म कर दिया था, तो इससे देवता बहुत मायूस हो गये थे। उन्होंने इकट्ठे होकर भगवान शिव से बहुत चिरौरी विनती की। ऐसे में भगवान शिव ने कामदेव को एक बार फिर से जीवित कर दिया, जिससे देवी देवता बहुत प्रसन्न हुए और तभी से होली के पांचवें दिन यह आध्यात्मिक रंगोत्सव मनाया जाता है।