चूरू लोकसभा सीट राजस्थान की 25 प्रमुख सीटों में से एक प्रमुख सीट है। चूरू को थार मरुस्थल का सिंहद्वार कहा जाता है। इस नगर की स्थापना 1620 ई. में निर्बान राजपूतों ने की थी। आजादी से पहले यह भूभाग बीकानेर रियासत का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन 1948 में इसे बीकानेर से काट कर अलग जिला बनाया गया।
बात यदि चूरू लोकसभा सीट की करें तो इस सीट का गठन 1977 में हनुमान गढ़ की नोहर, भद्रा सीट के अलावा चूरू जिले की सादुलपुर, तारानगर, सरदारशहर, चूरू, रतनगढ़ और सुजानगढ़ को मिलाकर हुआ था। उसके बाद यहां से केवल एक बार ही गैर जाट उम्मीदवार जीत पाया है। लोकसभा सीट बनने के बाद 1977 में पहली बार और 1980 में दूसरी बार जनता पार्टी के टिकट पर यहां से दौलतराम सारण सांसद चुने गए थे।
1984 के चुनाव में यह सीट कांग्रेस के मोहर सिंह राठौड़ ने छीन ली और एक साल बाद हुए चौथे चुनाव में कांग्रेस के ही नरेंद्र बुढानियां सांसद चुने गए थे। 1989 के चुनाव में एक बार फिर दौलतराम सारण ने जनता दल के टिकट पर चुनाव जीत कर कब्जा जमाया था। हालांकि भाजपा के रामसिंह कस्वां ने 1991 में पराजित कर दिया। इसके बाद 196 में फिर से कांग्रेस के नरेंद्र बुढानियां चुने गए और 1998 में भी अपनी जीत कायम रखी। इस सीट पर साल 1999 से भाजपा का खाता खुला था।
इस चुनाव में राम सिंह कस्वां भाजपा के टिकट पर जीते और 2004 और 2009 में भी जीत दर्ज करते हुए हैट्रिक लगाई। तीन बार सांसद रहने के बाद उन्होंने यह सीट अपने बेटे राहुल कास्वां को दे दी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कस्वां ने 2,94,739 वोटों से तो 2019 के चुनाव में 3,34,402 वोटों से जीत दर्ज कर यहाँ भाजपा का दबदबा कायम रखा। राहुल कस्वां के परिवार का पिछले 25 साल से इस सीट पर दबदबा रहा है। 3 बार उनके पिता यहां से सांसद रहे और दो बार वह खुद सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे। इस बार भाजपा ने टिकट काट दिया, तो पाला बदलकर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। दूसरी ओर भाजपा ने नए चेहरे देवेंद्र झांझरिया को उम्मीदवार बनाया है, जो पैरा-ओलंपियन हैं।
भाजपा की डबल हैट्रिक या कस्वां की हैट्रिक
लोकसभा चुनाव 2024 में चुरू लोकसभा सीट पर रोमांचक जंग देखने को मिल सकती है। भाजपा ने दो बार के सांसद राहुल कस्वां का टिकट काट दिया है। वहीं टिकट कटने से नाराज वर्तमान विधायक कस्वां कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और कांग्रेस ने भी उन पर दांव खेलते हुए चुरू से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। चुरू लोकसभा सीट भाजपा का मजबूत गढ़ है। लेकिन इसमें कस्वां परिवार का महत्वपूर्ण योगदान है। राहुल कस्वां के परिवार का पिछले 25 साल से इस सीट पर दबदबा रहा है। 3 बार उनके पिता यहां से सांसद रहे और दो बार से वह खुद सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे।
दूसरी ओर भाजपा ने यहां से नए चेहरे देवेंद्र झाझरिया को उम्मीदवार बनाया है, जो पैरा-ओलंपियन हैं। भाजपा के देवेंद्र झांझरिया प्रधानमंत्री के नाम एवं काम को लेकर मैदान में हैं तो पूर्व भाजपाई और अब कांग्रेस उम्मीदवार राहुल कस्वां अपने काम के साथ स्वाभिमान एवं प्रतिष्ठा को भी जोड़ रहे हैं। वहीं कांग्रेस को इस सीट पर ढाई दशक से जीत का इंतजार है तो भाजपा को डबल हैट्रिक का भरोसा है। अब देखना यह है कि यहाँ भाजपा की डबल हैट्रिक लगती है या कस्वां अपने पिता की तरह हैट्रिक लगाते हुए कांग्रेस को सफलता दिला पाते हैं।
राठौड़ के लिए प्रतिष्ठा का सवाल
सियासी माहौल कुछ ऐसा है कि मुकाबला झांझरिया-कस्वां की बजाय कस्वां बनाम राठौड़ हो चला है। कस्वां के भाषणों और बयानों में झांझरिया गायब हैं तो वहीं राजेंद्र राठौड़ के बयान भी कस्वां से शुरू होकर कस्वां पर ही खत्म हो रहे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी राहुल कस्वां खुद भाजपा उम्मीदवार को लेकर चर्चित नारे ‘केंद्र में नरेंद्र और चूरू में देवेंद्र’ पर तंज कसते हुए कहते हैं ‘बीच में राजेंद्र’ भी तो है। मुद्दों से ज्यादा पिछले विधानसभा चुनाव में राजेंद्र राठौड़ की तारानगर सीट से हार और उसके बाद कस्वां की भाजपा से टिकट कटने का विवाद पूरे क्षेत्र में छाया हुआ है।
कस्वां के लिए ये चुनाव नाक का सवाल बन गया है, तो राजेंद्र राठौड़ के लिए प्रतिष्ठा का। झांझरिया के लिए प्रचार कर रहे राठौड़ चूरू में डेरा डाले हुए हैं। कभी नाम लेकर तो कभी बिना नाम लिए कस्वां पर निशाना साध रहे हैं। फिर इसके बाद कस्वां पलटवार करते हैं और इससे मामला कस्वां बनाम राठौड़ होता जा रहा है। हालांकि राठौड़ के चुनावी मैदान में उतरने से झांझरिया को काफी मदद मिल रही है। क्योंकि कस्वां और राठैड स्थानीय मुद्दों एवं जातिगत राजनीति को लेकर एक दूसरे से भिड़ रहे हैं। वहीं देवेंद्र अपनी प्रधानमंत्री के नाम और काम तथा अपनी ईमानदार छवि के नाम पर समर्थन जुटाने में लगे हैं।