निया में भारत का सम्मान जिन कुछ वजहों से होता है, उनमें से एक महत्वपूर्ण वजह आजादी के बाद से अब तक होते रहे ईमानदार आम चुनाव भी हैं। यह अकारण नहीं है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में अगर लोकतांत्रिक चुनाव होते हैं और राष्ट्रसंघ या किसी वैश्विक एजेंसी को वहां पर्यवेक्षक के रूप में किसी देश के चुनाव विशेषज्ञों के दल को भेजना होता है, तो पहली पसंद भारत ही होता है; क्योंकि न सिर्फ राष्ट्रसंघ जैसी वैश्विक संस्था को बल्कि अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों को भी भारत की चुनावी विशेषज्ञता और ईमानदारी पर भरोसा है।
लेकिन इलेक्शन बांड के अंतिम रूप से व्यवहारिक खुलासे पर अगर किसी किस्म की तकनीकी चातुरी दिखाई गई और इससे कुछ लोग या राजनीतिक पार्टियां खुद को जरूरत से ज्यादा स्मार्ट साबित कर लिया, तो भले इससे उनकी जीत और तकनीकी स्मार्टनेस साबित हो जाए, लेकिन पिछली आधी सदी से भी ज्यादा समय से पूरी दुनिया में भारतीय चुनाव व्यवस्था को लेकर जो सम्मान हासिल है, वह नहीं रहेगा।
इसलिए बिना किसी आरोप, प्रत्यारोप के इस देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए हर किसी ताकतवर और जिम्मेदार को चाहे वह व्यक्ति हो या संस्था, भारत की चुनावी व्यवस्था को ईमानदार और विश्वसनीय बनाए रखना होगा।
दरअसल यह आशंका इसलिए पैदा हो गई है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुजरी 15 फरवरी 2024 को ‘इलेक्शन बांड’ योजना को रद्द किए जाने और अब तक इस योजना के तहत बिके बांड, उनकी कुल रकम और किसके द्वारा खरीदे गए तथा किसे वे मिले, जैसी जानकारियां मांगी गईं तो पहले तो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने यह कहते हुए ना नुकुर की कि इसके लिए उसे 30 जून 2024 तक समय चाहिए।
लेकिन जब इस जानकारी को चाहने वाली संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए पिटीशन लगाई कि इससे तो जानकारी हासिल करने का सारा मकसद ही बेमतलब हो जाएगा और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे समझते हुए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पर सख्ती की तो एसबीआई बांड से संबंधित बाकी सब जानकारियां देने को तो राजी हो गया है, लेकिन अभी भी इस जानकारी को लेकर स्पष्ट जवाब नहीं दे रहा कि बांड खरीदने वाले की वास्तविक पहचान भी इससे साफ होगी या नहीं।
वास्तव में जिस तरह से चुनावी बांड के यूनिक नंबर को लेकर कतरब्योंत की कोशिश की जा रही है, उससे हो सकता है सारी जानकारियां दिए जाने के बावजूद इनका कोई अर्थ न रह जाए। क्योंकि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से दिए गए डिटेल में प्रत्येक बांड को मिला यूनिक नंबर शामिल हो भी सकता है और नहीं भी।
अगर दी गई जानकारियों में यूनिक नंबर होता है और इलेक्शन बांड के खरीदार और प्राप्तकर्ता दोनों के पास के नंबरों का मिलान हो जाता है, तब तो पता चल जाएगा कि किस पार्टी को किस कंपनी ने दान दिया है। लेकिन अगर यूनिक नंबर नहीं दिया जाता या उपलब्ध नहीं होता, तो डोनर की सही कारपोरेट पहचान नहीं होगी।
क्योंकि इलेक्शन बांड की मूल अवधारणा में ही यह बात शामिल थी कि इलेक्शन बांड कोई भी कंपनी खरीद सकती है, भले वह कितने ही घाटे में क्यों न चल रही हो, कंपनी अधिनियम का इस संबंध में उस पर कोई कानून लागू नहीं हो सकता। जाहिर है इलेक्शन बांड योजना के बुनियाद में ही यह सहूलियत या दूरगामी सोच छिपी थी कि अगर कोई कारपोरेट कंपनी, अपनी कोई बोगस या सेल कंपनी खड़ी करके राजनीतिक पार्टियों को चंदा देकर खुश करने की कोशिश करें, तो वह ऐसा कर सकती है।
एक्सपर्ट शुरू से ही कहते रहे हैं कि यह बड़ा झोल है, जिसकी परिणति बड़े कारपोरेट घरानों को राजनीतिक फंडिंग के लिए सेल कंपनी स्थापित करने की अनुमति देता है। अगर जिस तरह का पेंच एसबीआई ने डाटा देते समय फंसाया है, अगर उसकी बारीकी में कानूनी आदेश को उलझा दिया गया, तो यह कभी नहीं पता चलेगा। मान लीजिए जिस लंगूज मैनुफैक्चरर या सनराइजर अथवा फ्लेमिंगो नामक कंपनियों ने राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया है, आखिर उनका वास्तविक रिश्ता किन कारपोरेट घरानों से है?
अगर यह सचमुच अमूर्त बना रहता है तो अभी तक हासिल हुए इस डाटा का भी कोई अर्थ नहीं होगा। एसबीआई ने अपने हलफनामे में कहा कि 12 अप्रेल 2019 से 15 फरवरी 2024 के बीच 22,217 चुनावी बांड खरीदे गए हैं और उनमें 22,030 को राजनीतिक दलों द्वारा भुनाया गया है। 1 अप्रैल 2019 से 11 अप्रेल 2019 के बीच जो कुल 3,346 चुनावी बांड खरीदे गए थे, उनमें से सिर्फ 1609 को भुनाया गया था। इस तरह 12 अप्रेल 2019 से 15 फरवरी 2024 के बीच कुल 18,871 चुनावी बांड खरीदे गए और उनमें से 20,421 भुनाए गए।
इन कुल चुनावी बांड में से 187 बांड भुनाए नहीं गए जिन्हें पहले से बनाई गई व्यवस्था के तहत प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दिया गया है। इस विस्तृत जानकारी में यह डाटा भी शामिल है कि साल 2019 से लेकर 2024 तक भारतीय जनता पार्टी को 6,337 करोड़ रुपए का चंदा हासिल हुआ है, जबकि उसके बाद सबसे ज्यादा जिस दूसरी राजनीतिक पार्टी को चंदा मिला, वह कांग्रेस है जिसे 1108 करोड़ रुपए चंदे में मिले हैं।
बाकी राजनीतिक पार्टियों को कुछ सौ करोड़ रुपए और कुछ तो इससे भी कम हासिल हुए हैं। ऊपर से देखने पर यह सारी जानकारी बहुत विस्तृत और रेशे रेशे नजर आती है। लेकिन इस जानकारी का कोई फायदा नहीं है, जब तक यह न पता चले कि जिन लोगों ने या जिन कारपोरेट कंपनियों ने ये बांड खरीदे आखिर उनकी वास्तविक पहचान क्या है?
अगर अंजान कंपनियों ने ये बांड खरीदे तो यह सवाल तो पैदा होता ही है कि आखिर उन्होने ये बांड क्यों खरीदे होंगे और क्यों राजनीतिक पार्टियों को खुश किया होगा? सबसे बड़ी बात यह है कि अगर इतने सारे खुलासे के बाद भी यह नहीं पता चलता कि चुनावी चंदे के लिए बांड खरीदने वाली कंपनी का वास्तविक रिश्ता किस कारपोरेट घराने से है और वास्तव में उसका कारोबार क्या है?
तो फिर यह सारा खेल संदिग्ध नजर आयेगा और इससे और भले कुछ न हो, लेकिन हमारा लोकतंत्र संदिग्ध हो जाएगा, जिसकी आज की तारीख तक पूरी दुनिया में एक साख है।भारत के आम मतदाताओं को न सिर्फ यह जानने का हक है कि किस राजनीतिक पार्टी को कितना चुनावी चंदा मिला और उसे किसने दिया बल्कि उसे यह भी जानने का अधिकार है कि चुनावी चंदा देने वाली कंपनी या कोई व्यक्ति करता क्या है?
क्योंकि अंततः इस इलेक्शन बांड योजना के भीतर एक बड़ा आर्थिक खेल भी शामिल है। कारपोरेट घराने या कोई कारपोरेट हस्ती अगर कोई इलेक्शन बांड खरीदकर राजनीतिक पार्टियों को दान करती है तो उतनी ही रकम की उसे दिए जाने वाले कर में छूट हासिल करने की सुविधा है। इसलिए अगर बहुत गहराई से देखें तो बड़े बड़े कारपोरेट घरानों का दिया गया दान भी अंततः टैक्स देने वाले भारतीयों की ही खून पसीने की कमाई है और इसमें सिर्फ वे टैक्स पेयर्स ही शामिल नहीं हैं।
जिनकी इंकम से एक दिखने वाली रकम टैक्स के रूप में कटती है बल्कि वे आम हिंदुस्तानी भी शामिल हैं, जो भले प्रत्यक्ष तौरपर एक रुपया भी टैक्स नहीं देते, लेकिन अप्रत्यक्ष तौरपर सरकार द्वारा हासिल किए गए कुल टैक्स में से 50 फीसदी में उनकी भूमिका होती है।
इसलिए अंततः राजनीतिक पार्टियों तक पहुंचने वाला चंदा आम हिंदुस्तानियों की जेब से निकली हुई रकम है। ऐसे में उन्हें सब कुछ जानने का पूर्ण हक है और लोकतंत्र की भलाई व हिंदुस्तान की साख भी इसी में है। इसलिए हर जिम्मेदार संस्था और शख्स को ईमानदारी से इसे अमलीजामा पहनाना चाहिए।
लोकमित्र गौतम