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Home » Blog » राष्ट्रीय » Maharashtra : धार्मिक-आध्यात्मिक रूप में हो पंचेंद्रियों का सदुपयोग – महाश्रमणजी

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Maharashtra : धार्मिक-आध्यात्मिक रूप में हो पंचेंद्रियों का सदुपयोग – महाश्रमणजी

Jagruk Times
Last updated: April 2, 2024 5:39 pm
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3 Min Read
आचार्यश्री महाश्रमणजी
आचार्यश्री महाश्रमणजी
Maharashtra : धार्मिक-आध्यात्मिक रूप में हो पंचेंद्रियों का सदुपयोग - महाश्रमणजी 3

पुणे। महाराष्ट्र में आध्यात्मिक ज्ञान की गंगा प्रवाहित करने वाले, जन-जन को मानवता का संदेश देने वाले जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, मानवता के मसीहा, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान समय में महाराष्ट्र व भारत राष्ट्र के एक प्रमुख शहर पुणे में विराजमान हैं। आचार्यश्री का प्रवास आधुनिक रूप से अग्रणी शहर की जनता को आध्यात्मिक स्पंदन से प्रभावित कर रही है।

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तभी तो आचार्यश्री के की मंगलवाणी का श्रवण करने के लिए प्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित हो रहे हैं। पुणे प्रवास के दौरान सोमवार को मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पुणे की जनता को सिमंधर समवसरण से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि हमारे शरीर में पांच इंद्रियां हैं- श्रोत्रेंद्रिय, घ्रणेंद्रिय, चक्षुरेंद्रिय, रसनेंद्रिय और स्पर्शनेंद्रिय। ये पांचों इंद्रियां अपने प्रतिनियत विषयों का ग्रहण करती हैं।

इस संदर्भ में तीन बातें हैं- इंद्रिय, इंद्रिय का विषय और इंद्रिय का व्यापार अर्थात् प्रवृत्ति। जैसे कान इंद्रिय है, उसका विषय शब्द तथा सुनना उसकी प्रवृत्ति है। कान के द्वारा आदमी आवाज को सुनता है और उसे ग्रहण करता है। इसी प्रकार चक्षु है तो उसका विषय रूप होता है तथा उसका व्यापार है देखना।

इसी प्रकार घ्राण का विषय गंध और उसकी प्रवृत्ति है सूंघना। जिह्वा का विषय है रस और उसका व्यापार है स्वाद का अनुभव करना। स्पर्श इंद्रिय का विषय है स्पर्श और उसका व्यापार है छूना। इन पांचों इंद्रियों से ज्ञान भी हो सकता है और भोग भी हो सकता है। इससे केवल ज्ञान भी ग्रहण भी किया जा सकता है और उससे विषयों का भोग भी हो सकता है। इनमें भी श्रोत्र और चक्षु को कामी इंद्रियां कहा गया है। शेष तीन भोगी इंद्रियां माना गया है। इस प्रकार पांच इंद्रियों को दो भागों में विभक्त किया गया है।

श्रोत्र और चक्षु रूपी दो इंद्रियां ज्ञान प्राप्ति के लिए भी सक्षम माध्यम बनती हैं। आदमी सुनकर कल्याण और अहित को जान लेता है। सुनने से शास्त्रों आदि का भी ज्ञान हो सकता है। चक्षु के द्वारा उस विषय को देखने और शास्त्रों आदि को पढ़कर भी ज्ञान का विकास किया जा सकता है। इसलिए श्रोत्र और चक्षु के द्वारा जितना ज्ञान अर्जन किया जा सकता है, संभवतः अन्य तीन इंद्रियों से उतनी मात्रा में ज्ञान का अर्जन नहीं कर सकता।

प्रवचन को सुनकर श्रोता कितने ज्ञान का अर्जन कर सकता है। साधु-संतों के दर्शन से भी आदमी का कितना कल्याण हो सकता है। पांचों इंद्रियों का धार्मिक-आध्यात्मिक रूप में प्रयोग करने का सुप्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने भी उपस्थित जनता को उद्बोधित किया।

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