विश्व के प्रथम वैज्ञानिक ‘भगवान विश्वकर्मा’

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भारत में महाभारत काल तक शिल्प ज्ञान विज्ञान और शिल्पियों का मान सम्मान होता रहा, तब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। क्योंकि शिल्प ज्ञान विज्ञान द्वारा प्राणी मात्र का कल्याण होता है। इसी लिए वेदों के प्रबल समर्थक एवं विद्वान स्वामी दयानंद जी महाराज ने शिल्प को यज्ञ कहा है, ऋषि कहता है जो ब्राह्मण चारों वेदों का ज्ञाता होकर भी शिल्प विद्या को नहीं जानता वह ब्राह्मण नहीं हो सकता।

ब्राह्मण शरीर शिल्प कर्म से ही पूर्ण होता हैं। विश्व का प्रत्येक व्यक्ति जो टैक्निकल या मैकेनिकल अर्थात् शिल्प ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं, सब विश्वकर्मा को अपना आराध्य मानते हैं। अत: विश्वकर्मा भगवान किसी जाति, धर्म एवं देश से ऊपर हैं। उनका आर्शीवाद और उपकार प्राणी मात्र पर है।

जो भी व्यक्ति शिल्प ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा है विश्वकर्मा की कृपा उन पर बरसती है। स्कंद पुराण में विश्वकर्मा के पुत्रों का वर्णन इस प्रकार है। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा देवज्ञ या विश्वरूप है।

भगवान राम की पहचान धर्म संस्कृति के प्रतीक यज्ञों के रक्षक और मर्यादा की रक्षा के रुप में है। जहां कहीं आदर्श पुत्र, आदर्श भातृ प्रेम, आदर्श पति और कर्तव्य पालन, आदर्श मर्यादा या राम राज की बात आती है, वहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम का जीवन-चरित्र स्मरण किया जाता है।

भगवान कृष्ण की पहचान धर्म रक्षक, कुशल राजनीतिज्ञ, नीति-शास्त्रज्ञ, संगठन शक्ति संचालक और योगीराज के रूप में विख्यात है। जहां कहीं भी आदर्श योग और गीता की बात आती है, वहां योगीराज भगवान श्री कृष्ण का आदर्श जीवन-चरित्र हमारी आंखों के सामने दृष्टिगोचर होता है।

इसी प्रकार जहां कहीं पर श्रम परिश्रम, शिल्प ज्ञान-विज्ञान, अस्त्र- शस्त्र, विमान-रथ, भव्य नगर-किले, मंदिर-महल, कूप-तालाब, बांध-सेतु आदि को देखते हैं तो उसके निर्माणकर्ता भगवान विश्वकर्मा को स्मरण किया जाता है।

वेद एवं संस्कृत साहित्य में विश्वकर्मा शब्द अनेक अर्थों में आता है, जैसे सृष्टि रचयिता परमात्मा, आत्मा, शिल्पाचार्य, त्वष्टा और प्रजापति आदि। अपने अद्वितीय और अनंत सामर्थ्य से सत, रज, तम तीनों परमाणुओं के संयोग और पंचमहाभूत तत्वो से सृष्टि और सारे ब्रह्मांड की रचना करने के कारण उस परमपिता परमात्मा (ईश्वर) को विराट विश्वकर्मा कहां जाता है।

जिसको सनातनधर्म में ओ३म् परमात्मा, ईसाई धर्म में गोड, और मुस्लिम धर्म में अल्लाह के नाम से स्मरण किया जाता है। शास्त्रों में एक मानव तनधारी ऋषि विश्वकर्मा के अवतरण का उल्लेख है। जिन्होंने अपने योग बल और वेद मंत्रों के साक्षात्कार से विभिन्न पदार्थों के गुणकर्म जानकर शिल्प ज्ञान विज्ञान का आविष्कार कर सृष्टि के समस्त मनुष्यों का उपकार किया। वेद में वर्णित विराट विश्वकर्मा (ईश्वर) और शास्त्रों में वर्णित ऐतिहासिक अवतारी विश्वकर्मा की रचना में समानता यह है कि दोनों की रचनाएं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए होती है।

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दोनों में अंतर यह है कि वेद में वर्णित विराट विश्वकर्मा (ईश्वर) की रचना बीज से गर्भ में तैयार होकर बाहर आती है और धीरे-धीरे अपनी विकास प्रक्रिया द्वारा पूर्ण आकार लेती है। अवतारी विश्वकर्मा की रचना वेद मंत्रों का साक्षात्कार कर उनके आधार पर वैज्ञानिक आविष्कारों और ज्ञान विज्ञान द्वारा बाहर बनाकर तैयार की जाती है।

जब सृष्टि बन गई तो (ईश्वर) परमात्मा विश्वकर्मा ने मनुष्य के आत्म कल्याण लोक परलोक का सुधार और कर्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान करवाने के लिए चार श्रेष्ठ आत्माओं के हृदय ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रगट किया। वे चारों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के रूप में जाने गए। अथर्ववेद का प्रगट जिस अंगिरा ऋषि के हृदय में हुआ।

उसी आदि ऋषि अंगिरा की वंश परंपरा में अनेक विश्वकर्मा हुए हैं। जिसमें प्रभाष नामक ऋषि की पत्नी भुवना की कोख से उत्पन्न होने वाले भोवन विश्वकर्मा के जन्म इतिहास की जानकारी पुराण ग्रथो में उपलब्ध है।
आश्वलायन सर्वानुक्रमणिका के अनुसार भुवन का पुत्र विश्वकर्मा हुआ और भुवन का पिता आप्तय ऋषि था। अतः विश्वकर्मा ब्रह्म ऋषि हुए। (पांचाल ब्राह्मण निर्णय 17/59) के अनुसार विश्वकर्मा भुवन के पुत्र हैं और वह विश्वकर्मा अंगिरस वंश वाले हैं और ऋषि के गोत्र के है। प्रथम अमेथुनी सृष्टि मे ब्रह्मा उत्पन्न हुए।

ब्रह्मा ने इस चारों ऋषियों से वेदज्ञान प्राप्त कर अपने शिष्यों को पढ़ाया। उसी आदि ब्रह्मा को विश्वकर्मा कहा गया है। ये ही आगे चलकर विश्व के प्रथम वैज्ञानिक शिव के रूप में पहचाने गए। हजारों वर्ष बाद मैथुनि सृष्टि के आरम्भ काल में वेद मंत्रों के साक्षात्कार कर्ता एक भुवन ऋषि हुए जो भोवन विश्वकर्मा के रूप प्रसिद्ध हैं, इनकी पत्नी का नाम भुवनेश्वरी था। महाभारत अध्याय 66 मंत्र 17/ 18/ 19 के अनुसार आदि में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्म ऋषि अंगिरा वंशज ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा के पितामह, पितामह का पुत्र// मनु और मनु का पुत्र प्रजापति था।

उस प्रजापति के मैथुनि सृष्टि काल में आठ वसु (पुत्र) उत्पन्न हुए। धर, ध्रुव, अह, अनि, अनल, प्रत्युष, सोम और प्रभाष ये आठ वसु प्रजापति के पुत्र कहे गए। स्कंद पुराण के अनुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति जी की बहिन जो वेदों की विदुषी और ब्रह्मोप देष्टी तथा योगविद्या जानने वाली थी।

जिसका नाम भुवना (ब्रह्मवादिनी) तथा योग सक्ता था, जो अष्टम वसु प्रभास नामक ऋषि की भार्या हुई और समस्त प्रकार के शिल्प के कर्ता भगवान विश्वकर्मा उसके पुत्र हुए। आठवें वसु प्रभास ऋषि के घर माघ मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन माता भुवना की कोख से एक तेजस्वी बालक का अवतरण हुआ जिनका बचपन का नाम सतकाम था।जिसका विवरण ऊपर दिया जा चुका है। जो आगे चलकर समस्त देवताओं के शिल्पाचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए।

महाभारत कालीन मय मुनि द्वारा रचित मयमत्तम् नामक वास्तुशास्त्र के ग्रन्थ में भगवान विश्वकर्मा के गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं :- भूगर्भ, भूलोक और द्यू लोक की सभी विद्याओं का ज्ञाता, शिल्प कला में सिद्धहस्त, चारों वेदों का पंडित, समस्त वेदागों का ज्ञाता, इंद्रीय दोष रहित अर्थात जिसके शरीर का कोई अंग अधिक व कम न हो, चरित्रवा, दयालु, धर्मात्मा, प्रसन्नचित व अहंकार शून्य, ईर्ष्या द्वेष रहित, प्रमाद रहित, गणित व ज्योतिष का पंडित, इतिहास का ज्ञाता, सत्यवादी, इंद्रियाजीत ब्रह्मचारी और स्थित-प्रज्ञ। ऐसे दिव्य गुणों से अलंकृत थे भगवान विश्वकर्मा।

भगवान विश्वकर्मा के पांचों पुत्र

स्कंद पुराण में विश्वकर्मा के पुत्रों का वर्णन इस प्रकार है । मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा देवज्ञ या विश्वरूप है। विश्वकर्मा के पांचों पुत्र रथकार कहलाते हैं।

विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों का विवाह

भगवान विश्वकर्मा ने अपने पांचों पुत्रों का विवाह ऋषि पुत्रियों से किया जिसका स्कंद पुराण नागर खंड अध्याय 6 में विवरण इस प्रकार है-
अंगिरा ऋषि की पुत्री काचना का मनु के साथ, पाराशर ऋषि की पुत्री सौम्या देवी का मय के साथ, कौशिक मुनि की पुत्री जयंती देवी का त्वष्टा के साथ, ब्रह्मर्षि भृगु की पुत्री करूणा का तक्षा के साथ और जैमिनी ऋषि की पुत्री चंद्रिका का विश्वज्ञ या देवज्ञ के साथ विवाह किया।

इस प्रकार भगवान विश्वकर्मा ने अपने पांचों पुत्रों का विवाह ऋषि कन्याओं से करके पुत्रों को शिल्प ज्ञान विज्ञान का विस्तार करने के लिए गुरूकुल स्थापित करने का आदेश दिया। और स्वयं वैदिक मर्यादा अनुसार संन्यास ग्रहण कर इलाचल पर्वत पर तपश्या करने चले गए।

पांचों ऋषि पुत्रों ने भगवान विश्वकर्मा की आज्ञा से शिल्प ज्ञान विज्ञान के विस्तार के लिए अपने-अपने गुरूकुल स्थापित किये इन पांचों शिल्पाचार्यो के 125 -125 प्रमुख शिष्य हुए जो गुरूपुत्रों के नाम से जाने गये यहीं से ऋषि गोत्र परंपरा का चलन हुआ। इसी तरह आदि ऋषि अंगिरस जिसको अंगिरा भी कहते हैं से विश्वकर्मा वंश की यह वंश परंपरा चलती रही।

शिल्प ज्ञान विज्ञान का महत्व

भारत में महाभारत काल तक शिल्प ज्ञान विज्ञान और शिल्पियों का मान सम्मान होता रहा तब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। क्योंकि शिल्प ज्ञान विज्ञान द्वारा प्राणी मात्र का कल्याण होता है। इसी लिए वेदों के प्रबल समर्थक एवं विद्वान स्वामी दयानंद जी महाराज ने शिल्प को यज्ञ कहा है, ऋषि कहता है जो ब्राह्मण चारों वेदों का ज्ञाता होकर भी शिल्प विद्या को नहीं जानता वह ब्राह्मण नहीं हो सकता।

ब्राह्मण शरीर शिल्प कर्म से ही पूर्ण होता हैं। विश्व का प्रत्येक व्यक्ति जो टैक्निकल या मैकेनिकल अर्थात् शिल्प ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं सब विश्वकर्मा को अपना आराध्य मानते हैं। अत: विश्वकर्मा भगवान किसी जाति, धर्म एवं देश से ऊपर हैं। उनका आर्शीवाद और उपकार प्राणी मात्र पर है। जो भी व्यक्ति शिल्प ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा है विश्वकर्मा की कृपा उन पर बरसती है।

विश्वकर्मा जन्मोत्सव (जयंति) ऐसे मनाएं

विश्वकर्मा जयंति के दिन सभी सपरिवार स्नान कर निकटवर्ती विश्वकर्मा मंदिरों में एकत्रित होकर प्रभातफेरी निकाले। पश्चात ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्रों से विराट विश्वकर्मा की स्तुति करें। फिर सभी वेद मंत्रों से यज्ञ कर प्रभो से आत्मबल और लोक कल्याण की प्रार्थना करें।

इसके बाद विश्वकर्मा की तरह शिल्प ज्ञान विज्ञान का आविष्कार कर लोकोपकार करने वाले शिल्पीजनों के उत्साह वर्धन के लिए राष्ट्रीय प्रादेशिक और जिला स्तर के अलग अलग पुरस्कार देकर सम्मानित करें।

बच्चों के लिए वेद ज्ञान, शिल्प शास्त्र और विश्वकर्मा जीवन-चरित्र से सम्बंधित सामान्य ज्ञान की परीक्षा आयोजित करे। जिससे उनकी शिल्प ज्ञान विज्ञान और अपने आराध्य विश्वकर्मा के प्रति रुचि और भक्ति जागृत हो। शांति पाठ के बाद कार्यक्रम समाप्त कर समाज संगठन एकता के लिए सहभोज का आयोजन करें।

घेवरचंद आर्य पाली

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