लद्दाख पर केवल चीन ही नजरें गड़ाए नहीं बैठा है, बल्कि उसके नाजुक इकोलॉजिकल इको सिस्टम पर औद्योगिक व खदान लॉबियों का भी खतरा मंडरा रहा है। सोनम वांग्चुक इन्हीं का विरोध कर रहे हैं और साथ ही इस केंद्र शासित प्रदेश के लिए संवैधानिक सुरक्षा की भी मांग कर रहे हैं।
इसलिए वह पिछले एक पखवाड़े से आमरण अनशन पर हैं। उनके साथ लगभग 250 व्यक्ति भी माइनस 12 डिग्री सेल्सियस तापमान की कड़कती ठंड में भूखे सो रहे हैं और वह भी खुले आसमान के नीचे। ताकि ‘भारत सरकार को याद दिला सकें कि उसने लद्दाख के पर्यावरण और उसकी आदिवासी देशज संस्कृति को सुरक्षित रखने का वायदा किया था’। इंजीनियर, शिक्षाविद, समाज सेवी व एक्टिविस्ट वांग्चुक के अनुसार, “यह केंद्र की भाजपा सरकार भारत को ‘लोकतंत्र की मां’ कहना पसंद करती है, लेकिन अगर भारत लद्दाख के लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार देने से इंकार करता है, तो उसे सिर्फ लोकतंत्र की सौतेली मां कहा जा सकता है।
” गौरतलब है कि वांग्चुक व उनके साथी जो मांग कर रहे हैं, उन सभी का वायदा बीजेपी ने अपने 2019 के घोषणा पत्र में किया था। इसलिए यह सोचने की बात है कि इन वायदों को पूरा क्यों नहीं किया जा रहा है? लद्दाख की राजधानी लेह की ठंडी सड़कों पर धोखे, वायदाखिलाफी व गुस्से का अहसास स्पष्ट देखा जा सकता है।
वांग्चुक का कहना है कि लद्दाख के घुमंतू दक्षिण में अपने प्रमुख चरागाह खोले जा रहे हैं; क्योंकि वहां भारतीय उद्योगपति विशाल प्लांट्स स्थापित कर रहे हैं। इस ज़मीनी हक़ीक़त पर प्रकाश डालने वांग्चुक ने सीमा मार्च का भी आयोजन किया है। जिसमें लगभग 10,000 लद्दाखी चरवाहों व किसानों ने भाग लिया।वांग्चुक का यह विरोध प्रदर्शन लेह में 6 मार्च 2024 से आरंभ हुआ।
जब उन्होंने समुद्र तल से 3,500 मीटर ऊपर सैंकड़ों लोगों को संबोधित किया और घोषणा की कि उनका विरोध प्रदर्शन 21-21 दिनों तक कई चरणों में आयोजित किया जाएगा। बहरहाल, लद्दाखी लोगों की मांग को समझने के लिए थोड़ा पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है। 5 अगस्त 2019 को धारा 370 निरस्त किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 बनाया गया था और लद्दाख को ‘बिना विधानसभा के’ अलग केंद्र शासित प्रदेश की मान्यता दी गई थी। ध्यान रहे कि नई दिल्ली व पांडिचेरी जैसे केंद्र शासित प्रदेशों की अपनी-अपनी विधानसभाएं हैं।
लद्दाख की वर्तमान स्थिति यह है कि वह 59,146 वर्ग किमी में फैला हुआ है। लद्दाख को धारा 370 के तहत जो विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त था, उसे भी समाप्त कर दिया गया है। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की तरह लद्दाख की अपनी विधानसभा नहीं है। लेकिन उसके पास चुनी हुई दो पहाड़ी परिषदें हैं-लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल-कारगिल (एलएएचडीसी) और एलएएचडीसी-लेह।
इस क्षेत्र के माइक्रो प्रशासनिक कार्यों का भार इन्हीं दो परिषदों पर है। 2011 की जनगणना के अनुसार लद्दाख की जनसंख्या 2.74 लाख है। लद्दाख मुस्लिम बहुल केंद्र शासित प्रदेश है, जिसमें लेह जि़ला में बौद्धों की संख्या अधिक है और कारगिल में शिया मुस्लिम ज्यादा हैं। धारा 370 व 35ए निरस्त किए जाने पर इस क्षेत्र में मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई थी।
इन धाराओं के प्रावधानों के तहत स्थानीय लोगों को भूमि, जॉब्स व प्राकृतिक संसाधनों पर एक्सक्लूसिव अधिकार प्राप्त थे। लेह लम्बे समय से केंद्र शासित प्रदेश की मांग कर रहा था। लेकिन 2019 की घटनाओं के बाद से कारगिल फिर से कश्मीर के साथ जुड़ने की मांग करता आ रहा है। पिछले दो वर्षों के दौरान लेह व कारगिल के दोनों सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन (लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस) सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं कि बिना विधानसभा के केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा अर्थहीन है।
दोनों जिलों ने हाथ मिलाकर जबरदस्त अभियान छेड़ा है, यह मांग करते हुए कि राज्य का दर्जा बहाल करने के साथ ही विधानसभा दी जाए। सर्वसम्मति से संविधान के छठे शेड्यूल और अनुच्छेद 371 के तहत विशेष दर्जे की भी मांग है। जैसा कि मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम व अन्य उत्तर पूर्व के राज्यों को प्राप्त है। लद्दाख के लोगों का तर्क है कि अगर इस क्षेत्र को बाहर के लोगों व बाहर के निवेश के लिए खोल दिया जाएगा तो इससे ‘इकोलोजिकाली अति नाजुक व संवेदनशील क्षेत्रों’ पर कुप्रभाव पड़ेगा।
लद्दाख में गिलगिट-बाल्टिस्तान को मिलाकर क्षेत्रीय नियंत्रण विस्तार की मांग भी साथ में की जा रही है। गौरतलब है कि 1947 से पहले गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र भी लद्दाख जिले का ही हिस्सा था, लेकिन अब यह क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में है। उक्त दोनों संगठनों ने केंद्र सरकार को जो मेमोरेंडम सौंपा है, उसमें कहा गया है कि केंद्र ‘गिलगिट-बाल्टिस्तान को लद्दाख में मिलाने का हर संभव प्रयास करे’।
यह भी मांग की गई है कि एक बार जब इस क्षेत्र में विधानसभा स्थापित हो जाए तो गिलगिट-बाल्टिस्तान के लिए सीटें आरक्षित कर दी जाए। बहरहाल, लोगों से सादा जीवन जीने की अपील करते हुए वांग्चुक ने फिलहाल दो प्रमुख मांगों पर फोकस किया हुआ है। एक, लद्दाख को संविधान की छठी सूची में शामिल किया जाए और दूसरा यह कि लद्दाख को राज्य का दर्जा दिया जाये। बीजेपी ने 2019 लोकसभा चुनाव और 2020 लद्दाख पहाड़ी परिषद चुनाव के अपने घोषणा पत्रों में लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने का वायदा किया था।
अब यह वायदा क्यों नहीं पूरा हो रहा है? वांग्चुक का कहना है, “बीजेपी सिर्फ चुनावों के बारे में सोचती है कि वह कितनी सीटें जीत सकती है, लेकिन लोगों के बारे में भूल जाती है। ऐसा लगता है कि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश इसलिए घोषित किया गया ताकि औद्योगिक लॉबी और खदान कम्पनियों को हमारे पहाड़ बेच दिए जाएं।” संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत छठी अनुसूची में स्वायत्तता प्रशासनिक क्षेत्र गठन करने का प्रावधान है।
जिन्हें स्वायत्तता जि़ला परिषद (एडीसी) कहते हैं। इनमें 30 तक सदस्य हो सकते हैं, जिनका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और वह भूमि, वन, जल, कृषि, ग्राम परिषद, स्वास्थ्य, सैनिटेशन, गांव व क़स्बा स्तर की पुलिस आदि से संबंधित क़ानून व नियम बना सकते हैं। फि़लहाल यह उत्तरपूर्व के राज्यों में लागू है।
लद्दाख में इस समय पर्यावरण संबंधी चिंताएं अधिक हैं। लोगों को लगता है कि उद्योग बांध व खदान के ज़रिये पहाड़ों का शोषण कर रहे हैं।वांग्चुक अपने आमरण अनशन की वजह यह बताते हैं कि लोगों की आवाज़ सुनी जाये, औद्योगिक व खदान लॉबियों का दबाव समाप्त किया जाये ताकि सरकार उचित निर्णय ले सके।
वांग्चुक के अनुसार, लद्दाखी सैनिकों का मनोबल भी टूटा हुआ है क्योंकि लद्दाख में न लोकतंत्र (पढ़ें विधानसभा) है और न ही स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि मुंबई, पुणे, हैदराबाद सहित देश के कम से कम 20 शहरों में आज (20 मार्च 2024) लद्दाख के समर्थन में विशाल प्रदर्शन हुए। ऐसा ही प्रदर्शन 24 मार्च को भी होगा।
नौशाबा परवीन