‘भक्षक’ इस केस का सीधा-सीधा नाम नहीं लेती। लेकिन ट्रेलर में कहानी को ‘रियल घटनाओं पर आधारित’ बताया गया था। फिल्म में जहां सब कुछ घट रहा है, उस जगह का नाम मुजफ्फरपुर की जगह, मुनव्वरपुर कर दिया गया है और इसी तरह TISS (टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज) बदलकर NISS बन जाता है, जिसकी रिपोर्ट से पूरा मामला खुलता है।
एक ‘भक्षक’ को बेनकाब करने की लड़ाई
आपकी स्क्रीन पर फिल्म एक अंधेरे में डूबे मकान से शुरू होती है, जहां एक लड़की दर्द में कराह रही है। कहानी में आपकी एंट्री सीधा एक लड़की के यौन शोषण, उसके प्राइवेट पार्ट में मिर्च भरे जाने और फिर उसे खत्म कर दिए जाने के सीक्वेंस के साथ होती है।
‘भक्षक’ यहीं से आपको उस घिनौनी सिचुएशन में धकेल देती है, जो इस तरह की कहानी में आपकी संवेदनाओं को झकझोर देने के लिए जरूरी है। पंचायत वेब सीरीज में ‘बनराकस’ का किरदार निभाने वाले दुर्गेश कुमार यहां एक खबरी की भूमिका में ‘गुप्ता जी’ के नाम से नजर आते हैं, जो वैशाली को एक सोशल स्टडी की रिपोर्ट देते हैं। इस रिपोर्ट में मुनव्वरपुर के बालिका गृह में बच्चियों के यौन शोषण की बात है।
पोस्ट ऑफिस की सरकारी नौकरी करने वाले अपने पति से लड़कर, अपना कुछ करने की कोशिश में लगी वैशाली को इस रिपोर्ट में वो कहानी दिखती है, जिसने उसे पत्रकारिता की तरफ धकेला था। अपने कैमरामैन भास्कर सिन्हा (संजय मिश्रा) के साथ वैशाली इस मामले की जड़ खोजने निकल पड़ती है। मुनव्वरपुर बालिका गृह चलाने वाला बंसी साहू (आदित्य श्रीवास्तव) अपने इलाके का नामी आदमी है।
एक बिना रिसोर्स, बिना नामी चैनल के आइडेंटिटी कार्ड वाली ये पत्रकार कैसे मामले को सामने लाने में कामयाब होती है, यही ‘भक्षक’ की कहानी है। कहानी में एक सबप्लॉट वैशाली की निजी जिंदगी का है, जहां उसके पति के रिश्तेदार जल्दी बच्चा पैदा करने और ‘घरेलू’ हो जाने का लगातार दबाव बना रहे हैं। बंसी साहू को छेड़ते ही वैशाली के पति को भी धमकाया जाने लगता है। ‘भक्षक’ एक सॉलिड पेस से शुरू होती है और बालिका गृह के अंदर भयानक चीजों को सामने रख देती है।
रिसोर्स और कभी-कभी सरकारी मशीनरी के ज्ञान की कमी से जूझती वैशाली, वैसी पत्रकार नहीं है जो हर मुद्दे को लेकर आरोपी से सीधे भिड़ जाए। उसे अपनी लिमिट्स पता हैं। उसके कैमरामैन की नजर से आपको उसकी दिक्कतें और मजबूरियां दिखती रहती हैं। वो एक ऐसी सिचुएशन में है जहां ‘सिस्टम’ से लड़कर उसका काम नहीं चल सकता। इसलिए उसे भी ‘सिस्टम’ के एक्टिव होने की जरूरत है।
बालिका गृह में लड़कियों के साथ जो कुछ होता है, वो कुछ ऐसा नहीं है जो आप इमेजिन नहीं कर सकते। मगर इस कहानी के ‘भक्षक’ उसे जिस घिनौनी हद तक खींच देते हैं, उससे कई जगह आपको अंतड़ियों में ऐंठन महसूस होती है। ज्योत्सना नाथ के साथ मिलकर शो लिखने वाले, डायरेक्टर पुलकित फिल्म के बीच में आकर कुछ जगहों पर किरदारों की अतरंगी बातें दिखाने में थोड़ा ज्यादा एफर्ट करने लगते हैं।
जैसे बालिका गृह की रिपोर्ट पर एक्शन न लिए जाने पर PIL दाखिल होने के बाद, कहानी के नेगेटिव किरदार आपस में उलझते नजर आते हैं। ये पूरा सीक्वेंस एक गंभीर कहानी में, हल्का मोमेंट क्रिएट करने की कोशिश लगता है। मगर स्टोरी वाकई इतनी गंभीर है कि आप वैशाली पर लगातार फोकस रखना चाहते हैं कि उसका अगला कदम क्या होगा। इस तरह के दो और सीक्वेंस कहानी में हैं।
पुलिस का रिपोर्ट फाइल करने से इनकार करना, खतरनाक केस मिलने पर पत्रकार के पति का डर, कहानी के विलेन का नाम लेते ही लोगों के घबराने जैसी कई रूटीन चीजें ‘भक्षक’ के नैरेटिव में मिलती हैं। इस तरह की चीजें वैसे भी बिहार बेस्ड क्राइम थ्रिलर्स में खूब नजर आती हैं, तो यहां कुछ नया नहीं है। मगर ‘भक्षक’ की कहानी और नैरेटिव को हिरोइज्म से दूर रखने की कोशिश असरदार हैं।
भूमि पेडनेकर ने अपने किरदार को पूरे दम के साथ प्ले किया है और उनके बात करने की टोन भी काम करती है। संजय मिश्रा ने एक बार फिर दिखाया है कि उनका अनुभव भरा काम गंभीर कहानियों में एक दिलचस्प एंगल ला सकता है। दुर्गेश कुमार का काम यहां उन्हें एक नई पहचान दिलाएगा।
सीन्स में उनका ठहराव कमाल का है। आदित्य श्रीवास्तव का टैलेंट भले स्क्रीन पर आपको दिखता कम हो, मगर उनके ताकने, मुस्कुराने और चुप रह जाने भर में वो भय आपको महसूस होगा, जो ‘भक्षक’ में चाहिए। ‘भक्षक’ में अपनी खामियां जरूर हैं, मगर एक क्राइम थ्रिलर और एक बेहद चर्चित और शॉकिंग केस की सिनेमेटिक एडाप्टेशन के लिए ये जरूर देखी जा सकती है, सरे एक्टर्स का काम शो की कहानी में आपको बांधे रखता है।
और इस कहानी में खुद ही बुराई की इतनी गहराई है, जो आपको क्लाइमेक्स में कुछ अच्छा हो जाने की उम्मीद के साथ जोड़े रखती है।