संपादकीय : एक देश-एक चुनाव

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देश में एक बार में एक साथ चुनाव करवाने की कवायद के बीच एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों में बहस छिड़ गई है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित समिति की ओर से एक देश-एक चुनाव को लेकर रिपोर्ट मौजूदा राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को सौंपे जाने के बाद इस बहस को और हवा मिली है।

रामनाथ कोविंद की सदारत में बनी समिति की ओर से साल 2029 में पूरे देश में एक साथ चुनाव करवाने का प्रस्ताव दिए जाने के बाद राजनीतिक जानकारों की शुरुआती प्रतिक्रियाएं एक बारगी विरोधाभास भी पैदा करतीं हैं। राजनीतिक जानकारों का एक तबका जहां एक देश-एक चुनाव के पक्ष में दलीलों की एक लम्बी फेहरिस्त का हवाला दे रहा है, वहीं विपक्षी दलों के पैरोकार राजनीतिक विश्लेषकों के यह प्रस्ताव गले नहीं उतर रहा है।

कुल 18626 पन्नों की ताजा रिपोर्ट में समिति की ओर से सरकार को कई प्रस्ताव सुझाए गए हैं। कोविंद समिति की यह रिपोर्ट गुरुवार को राष्ट्रपति भवन में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को सौंपी गई। रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने संबंधी उच्च स्तरीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने के लिए दो चरणों वाले दृष्टिकोण की सिफारिश की है।

समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले चरण में लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। तदुपरांत 100 दिन के भीतर दूसरे चरण में स्थानीय निकायों के चुनाव कराए जा सकते हैं। मसौदे में समिति की ओर से कहा गया है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से देश की विकास प्रक्रिया और सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा मिलेगा।

लोकतांत्रिक परंपरा की नींव गहरी होगी और देश की आकांक्षाओं को साकार करने में भी मदद मिलेगी। रामनाथ कोविंद के नेतृत्व वाली समिति की ओर से तैयार किए गए मसौदे में वर्ष 1951-52 और 1967 के बीच तीन चुनावों के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। यहां यह तर्क दिया गया है कि पहले की तरह अब भी एक साथ चुनाव करना संभव है।

रिपोर्ट में बताया गया कि एक साथ चुनाव कराना तब बंद हो गया था, जब कुछ राज्य सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही गिर गई थीं या उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। जिसके चलते नए सिरे से चुनाव कराने की आवश्यकता पड़ी। सरकार की इस पहल का विपक्षी दलों की ओर से विरोध करना भी जायज ही कहा जाएगा। जािहर है, सरकार को अपनी मनमर्जी करने देना विपक्षी दलों को गवारा नहीं हो सकता। हुआ भी ठीक वैसा ही।

जब सरकार ने पिछले साल सितंबर में एक राष्ट्र-एक चुनाव का ताना-बुना बुना था, तब भी विपक्षी दलों ने विरोध में स्वर उठाना शुरू कर दिया था। आज जब समिति की ओर से इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ाया गया, तब भी विपक्षी दलों की ओर से दी गईं प्रतिक्रियाएं भी सरकार की मंशा के ठीक उलट ही रहीं।

देश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के प्रवक्ता से लेकर विपक्षी विचारधारा के पक्षधर राजनीतिक विश्लेषकों ने भी लगभग एक ही सुर में सुर मिलाने की कोशिश की। जाहिर है, उनकी भी अपनी मजबूरियां हैं। अब वो दलीलें दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दिए जाने वाले ‘अबकी बार-400 पार’ नारे के नेपथ्य में भी उनकी मंशा यही है। वो चाहते हैं कि पूरे देश की आधी से ज्यादा विधानसभाओं में उनकी सरकार हो, संसद में भी उनका भरपूर दबदबा हो और सरकार एक देश-एक चुनाव का विधेयक पारित करा सके।

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