कर्म क्या है और कर्मसन्यास क्या है? वस्तु के आपेक्षिक स्थान परिवर्तन को कहा जाता है कर्म । कर्म कभी भी स्थान, काल, पात्र के बाहर सम्पन्न नहीं हो सकता । चरम सत्ता के समय कर्म का अस्तित्व अनुपस्थित रहता है । क्योंकि वह आपेक्षिकता के ऊर्ध्व है । अब कर्म सन्यास क्या है ।
‘सन्यास’ शब्द निष्पन्न हुआ है-सम् जोड़ न्यास अथवा सत् जोड़ न्यास । आदर्श के साथ स्वयं को सम्पूर्ण रुप से एकीभूत कर देने को सन्यास कहते हैं । कर्म सन्यास का क्या अर्थ है? कोई कहते हैं-यह नैष्कर्म है, कोई कहते हैं सम्यक कर्मान्त; फिर किसी-किसी के मत में कर्म के माध्यम से परमात्मा में मिल जाने को ही कर्म सन्यास कहते हैं । अब देखा जाए? कर्म सम्पन्न कौन करता है ।
कर्म की परिधि स्थान, काल तथा पात्र के द्वारा सीमाबध्द है । जब देश देशातीत के, काल कालातीत के और पात्र पात्रातीत के संस्पर्श में आता है तभी कर्म सन्यास सम्भव है । इसलिए कर्मसन्यास कोई माध्यम नहीं है, यह परिसमाप्ति की अवस्था है ।कर्म कौन करता है? कर्म स्थान, काल, पात्र के द्वारा सीमाबध्द है ।
यहॉं कर्मकर्ता द्विधाविभक्त है- अणुमन और भूमामन। पूर्वाेक्त दोनों को छोड़ तृतीय किसी के द्वारा कर्म निष्पन्न नहीं हो सकता। मन के चाहने से शरीर कार्य करता है, मन के नहीं चाहने से दो कारणों से शरीर कार्य नहीं कर सकता है । प्रथमतः भूमामन अर्थात् परमात्मा आकर्षण करते हैं । इसलिए व्यष्टि विशेष के चरम सत्ता से निर्देश पाने से चलना तो होगा एवं चलने के लिए वह बाध्य भी है ।
द्वितीयतः कोई अणु किसी को उसकी अनिच्छा होने पर भी परिचालन कर सकता है । इसलिए कार्य सम्पादन होता है अणुमान के द्वारा अथवा भूमामन के द्वारा । वायु प्रवाहित होती है-इसका निजस्व मन नहीं है। यह स्थूल है किन्तु भूमामन की अनुप्रेरणा से यह पथ पर चल रही है ।
बच्चे जैसे लट्टू घुमाते हैं, यह भी ठीक उसी तरह है। बच्चे सब समय लट्टू घुमा नहीं सकते, जब वे इसे ठीक तरह छोड़ सकते हैं तभी इसे नचा सकते हैं । इसलिए लट्टू स्वयं नही घूम सकता – अन्य के द्वारा घुमाना पड़ता है । ठीक उसी प्रकार सूर्य घूमता है – भूमामन की अणुप्रेरणा से ही विश्व की सभी वस्तुएॅ घूम रही है ।
इसलिए मन से ही कार्य की उत्पत्ति है एवं मन ही कार्य सम्पन्न करता, मन के नहीं चाहने से कार्य नहीं होता है।कर्म का उत्स है मन । इसलिए जो कर्म होता है वह मन के द्वारा ही सम्पन्न होता है। अब देखें – मन किस तरह कार्य करता है । भौतिक स्तर पर जब कर्म होता है तब शक्ति की आवश्यकता पड़ती है ।
शक्ति क्या चीज हैै? वस्तु देह के अभ्यन्तर क्रियाशीलता की अवस्था को कहते है। शक्ति । शक्ति स्वयं अन्धी है- उसके कार्य के लिए बुध्दि की आवश्यकता है । इसलिए इस अन्धी शक्ति का परिचालना के लिए चालक की आवष्यकता है। इसलिए पार्थिव जगत् में क्रियाशील शक्ति के समर्थन में बोधज्ञान की आवश्यकता है ।
किसी देश या किसी समाज में यदि कोई वस्तु साधारण मनुष्य के बीच रक्खी जाए तो वह विनष्ट हो जाती है। जिन्हें विचार विवेचना है, उन्हें ही साधारण मनुष्य की शारीरिक शक्ति को बौध्दिक उपाय से नियन्त्रण करने के लिए दायित्व देना होगा।
प्रस्तुतिः दिव्यचेतनानन्द अवधूत