आनंद की अनुभूति करना परमपिता की बड़ी कृपा : श्री श्री आनन्दमूर्ति

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एक प्रश्न है, मनुष्य प्राण को अलग करना क्यों नहीं चाहता? हर जीव जीवित रहना क्यों चाहता है? इसका कारण यही है कि शरीर जब तक क्रियाशील है, शरीर में जब तक प्राण है, तब तक मन सुख का भोग सकता है। शरीर सुख भोग नहीं करता है, सुखभोग करता है मन।

जिस दशा में रहने से मनुष्य के मन में चंचलता बढ़ जाती है वह उस दशा में सुख भोग नहीं कर सकता। मन तभी तक सुख भोग सकता है, जब तक उसमें प्राण है। यदि प्राण नहीं है तो मन नहीं, फिर सुख-दुख भोगने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसीलिए मनुष्य प्राण से अलग होना नहीं चाहता। इसीलिए प्राण या जीवन हर जीव के लिए बहुत प्रिय है। तो जीवन इसलिए प्यारा है कि मन हर सुख भोगना चाहता है।

सुख भोग ने का वास्तविक अर्थ अच्छा खाना, अच्छा कपड़ा पहनना, खूब धन इकट्ठा करना, समाज में सम्मान पाना नहीं है। अगर तुम्हारे साथ किसी का व्यवहार खराब है और वह तुम्हें भर पेट लड्डू-पूरियां या तुम्हारे पसंद का स्वादिष्ट व्यंजन खिलाता है, तो भी तुम खुश नहीं हो सकते। यह मनुष्य मन की विशेषता है।

इसका कारण यह है कि मनुष्य का मन सिर्फ देहकेंद्रित नहीं है। यानी सिर्फ इंद्रिय सुख, बाहरी सुख मन का स्थायी सुख नहीं है। मनुष्य का मन देहातीत भी है, पर वह शरीर के अंदर हर बिंदु में क्रियाशील है। जब मनुष्य जितना चाहता है, उतना पाता है या उससे अधिक पाता है, तो वह चिल्ला-चिल्लाकर अपने सुख को व्यक्त करता है। वहीं, जब वह अपनी निम्न चाह को भी नहीं पाता है, तो रोने लगता है।

रोक-रोकर वह अपनी अनुभूति को व्यक्त करता है। यह तो हुई मनुष्य की बात। दूसरे जीवों के बारे में विचार करें तो पाएंगे कि कोई पूंछ हिलाकर अपना सुख व्यक्त करता है, कोई कान हिलाता है। जब वह आनंदित होता है, तो वह अलग तरह की आवाज निकालता है। दुखी होता है, तो उसकी अलग तरह की आवाज होती है।

ऐसे में मनुष्य ने समझ लिया कि एक सत्ता है जिसकी प्रेरणा से ये सब घटनाएं हो रही हैं। उस सत्ता से पेड़-पौधे परिचित नहीं है। उससे परिचित होने के लिए उसमें मानसिक शक्ति का अभाव है। लेकिन परमपिता की कृपा से मनुष्य में वह शक्ति मिली हुई है।

इसी शक्ति से मनुष्य के जीवन में, मनुष्य के जगत में धर्म का शुभागमन हुआ। यह मनुष्य की खोज की प्रथम जिज्ञासा थी। यह धर्म साधना का रहस्य है। मनुष्य ने समझ लिया कि इस विश्व ब्रह्मांड में जिनके कारण आनंद की अनुभूति हो रही है, वे ही मेरे वे ही हमारे-लक्ष्य हैं।

उनके सिवाय हमारे सामने और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं रह सकता। उनके सिवाय और किसी से मनुष्य की मुहब्बत नहीं हो सकती। उनके सिवाय कोई चीज मनुष्य को स्थायी सुख नहीं दे सकता। प्राचीन काल में हमारे संत-महात्माओं, ऋषियों ने मेहनत कर इस उत्तर को खोजने में हमारी मदद की।आज के मनुष्य को सिर्फ उन राहों पर चलना है, सिर्फ आगे बढ़ना है

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