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संपादकीय

संपादकीय : क्या वाकई स्त्री-पुरुष बराबरी आएगी?

Jagruk Times
Last updated: March 6, 2024 6:27 pm
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9 Min Read
Editorial
Editorial
संपादकीय : क्या वाकई स्त्री-पुरुष बराबरी आएगी? 3

हमारे देश में स्त्रियों की शिक्षा में भी काफी वृद्धि हुई है। जिस समाज में जबरदस्त परिवर्तन आ रहे हों, उसमें पुराने कानून पुराने पड़ जाते हैं। इसलिए कानून ऐसे होने चाहिए, जो जैसा समाज है, वैसी जरूरतें पूरी करते हों न कि जैसा समाज था, उसके अनुरूप हों।

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कहने का अर्थ यह है युवाओं के सोचने, रहने व कार्य के प्रति कानून बहरा नहीं रह सकता। बहरहाल, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के विचार का समर्थन हमेशा से इसलिए किया जाता रहा है कि इससे धर्मनिरपेक्षता व लिंग समानता को प्रोत्साहित करने का मार्ग प्रशस्त होता है। लेकिन क्या उत्तराखंड का यूसीसी विधेयक इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करने में सक्षम है?

पुरुषों व महिलाओं

सबसे पहली बात तो यह है कि प्रस्तावित विधेयक में वर्तमान कानून के अनेक प्रावधानों को बरकरार रखा गया है-पुरुषों व महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु अलग-अलग है (क्रमशः 21 व 18 वर्ष), दाम्पत्य अधिकारों की पुनःस्थापना, तलाक के सीमित ग्राउंड्स।

दूसरा यह कि इसकी ड्राफ्टिंग बहुत कमजोर है कि कुछ वाक्य तो पूर्णतः समझ से बाहर हैं। यह स्पष्ट विषमताएं हैं जो केवल वकीलों को व्यस्त रखने का ही काम करेंगी। तीसरा यह कि आदिवासी समुदाय को यूसीसी से बाहर रखा गया है। यूसीसी का विस्तार सभी के लिए होना चाहिए और कोई भी अपवाद इसके उद्देश्य को ही खत्म कर देता है।

अगर एक समुदाय को छूट दी जाएगी तो दूसरे समुदायों को छूट की मांग करने से कैसे रोका जा सकता है। अंतिम यह, जैसा कि भाकपा (एम) के राज्य सचिव इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, “यह लोगों के लिए समता नहीं ला रहा है बल्कि वयस्कों व उनके व्यक्तिगत संबंधों को टारगेट कर रहा है।

”दरअसल, अधिकतर मतभेद वैयक्तिकता के इर्द-गिर्द केंद्रित है। विवाह को परिवार की सेवा के रूप में देखा गया है, लिव-इन रिलेशनशिप को नहीं। उत्तराखंड की सरकार लिव-इन संबंधों को ट्रैक करने की अपनी आक्रामक योजना को उचित ठहराने की जरूरत क्यों महसूस नहीं करती, हालांकि यह अप्रत्याशित होगा?

चूंकि यह मान लिया गया है कि सभी पैरेंट्स मौन स्वीकृति देंगे और तालियां बजाएंगे। कानून निर्माता और न्यायाधीश अक्सर पैरेंट्स के प्रति वफादार होते हैं। उनमें अधिक खुलापन होना चाहिए, जो कि उनके पदों का तकाजा भी है। युवा पुरानी पटकथाओं तो त्यागकर नई अनसुनी कहानियां लिख रहे हैं। बूढ़े सिरों वाली संस्थाएं इस आत्मविश्वास भरे साहस से चिंतित हैं।

हालांकि सफेद बालों वालों की ताकत युवाओं के लिए अवरोध उत्पन्न करती रहेगी, लेकिन लगता नहीं कि यह धारा रुक पाएगी। युवा यह मांग करते रहेंगे कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी जाए, मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया जाए, एकल व्यक्ति को सरोगेसी अधिकार दिए जाएं, आवश्यक पेटर्नल लीव दी जाएं, लिव-इन संबंधों की निगरानी न की जाए, आदि।

युवाओं को अतीत की सामाजिक नैतिकता से बांधना कठिन है। इसलिए यह अर्जेंट राष्ट्रीय हित में होगा कि कानून निर्माता उन बातों का पालन करें जो सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निजता के अधिकार फैसले में कही है कि राज्य को नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। राज्य का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना है।

यह अजीब विरोधाभास है कि 18 वर्ष का होने पर एक महिला अपने पैरेंट्स के हस्तक्षेप के बिना विवाह तो कर सकती है, लेकिन लिव-इन संबंध में प्रवेश करने के लिए उसका 21 वर्ष का होना आवश्यक है। दूसरा यह कि विवाह में गुजाराभत्ता लिंग-तटस्थ प्रावधान है और तलाक का चाहे जो कारण हो, उपलब्ध है, लेकिन लिव-इन संबंध में केवल महिला ही गुजाराभत्ता का दावा कर सकती है और वह भी केवल परित्याग के आधार पर।

तीसरा यह कि विवाह के गैर-पंजीकरण के विरुद्ध कोई दंडात्मक प्रावधान नहीं है, लेकिन लिव-इन संबंध को अगर स्थानीय पुलिस व रजिस्ट्रार के समक्ष पंजीकृत नहीं कराया गया तो कैद व जुर्माना दोनो का प्रावधान है। अगर कोई पार्टी 21 वर्ष से कम है तो रजिस्ट्रेशन स्टेटमेंट पैरेंट्स को भी सौंपनी होगी।

इस बात को अधिकारिक तौरपर यह कहकर उचित बताया गया है कि यह पैरेंट्स की मांग थी, इससे महिलाओं के विरुद्ध अपराध को रोका जा सकेगा और पश्चिमी देशों में भी ऐसे कानूनी प्रावधान हैं। यह अजीब तर्क हैं। सबसे पहली बात तो यह कि पंजीकरण से अपराध नहीं रुकते हैं, जैसा कि विवाह की कानूनी सुरक्षा के भीतर दहेज हत्याओं, घरेलू हिंसा, यौन शोषण व क्रूरता के डाटा से स्पष्ट है।

दूसरा यह कि पश्चिमी देशों में प्रावधान यह है कि अगर दीर्घकालीन लिव-इन संबंध खत्म किया जाता है तो गुजाराभत्ता व चाइल्ड सपोर्ट जैसे सुरक्षा कवच उपलब्ध रहते हैं। संबंध खत्म होने पर कमजोर पार्टी के अधिकारों को सुरक्षित रखा जाना आवश्यक है, लेकिन रजिस्ट्रार को यह अधिकार देना कि वह लिव-इन संबंध को रजिस्टर करने से इंकार भी कर सकता है, तो इसका अर्थ सिर्फ यही निकलता है कि कानूनन बालिग होने पर भी युवा अपने फैसले स्वयं करने में असक्षम हैं।

रजिस्ट्रार अनेक आधारों पर लिव-इन संबंध को पंजीकृत करने से मना कर सकता है। मसलन, सहमति बहला-फुसलाकर, अनुचित प्रभाव, गलत तरीके आदि के जरिये ली गई है। आज की राजनीति से जो लोग जरा भी परिचित हैं, वह जान लेंगे कि यह बेतुका प्रावधान क्यों लाया गया है। जिन युवाओं के माता-पिता उनकी पसंद की शादी के विरोध में होते हैं, वह ही अक्सर लिव-इन में प्रवेश करते हैं।

ताकि समय के साथ अपने परिवारों को अपने फैसले से सहमत कराया जा सके। यह भी देखने में आता है कि अपनी बेटी की पसंद को ठुकराने के लिए पैरेंट्स अक्सर लड़के पर झूठे आरोप लगाते हैं।

बहरहाल, रजिस्ट्रार को इंकार का अधिकार देने से भी अधिक चिंताजनक है यूसीसी का सेक्शन 386, जिसके तहत थर्ड-पार्टी को अनुमति दी गई है कि वह शिकायत कर सकती है कि लिव-इन संबंध पंजीकृत नहीं है। अब इस प्रावधान से कोई भी ‘नैतिक पुलिस’ की भूमिका में आकर किसी की प्राइवेसी में हस्तक्षेप कर सकता है। यह अस्वीकार्य घुसपैठ है जिसे सरकार प्रोत्साहित कर रही है।

यूसीसी का घोषित उद्देश्य लिंग समता था, लेकिन महिला की प्राइवेसी व स्वायत्तता के पर काटकर इससे पितृसत्तात्मकता को ही प्रोत्साहन मिलता प्रतीत हो रहा है। कोई भी महिला जो लिव-इन में प्रवेश करने की इच्छुक होगी उसे बच्चों जैसी निगरानी से गुजरना होगा, जिसमें पुलिस उसके पैरेंट्स या थर्ड-पार्टी से सांठगांठ करके उसकी इच्छाओं की बलि चढ़ा सकती है।

किसी भी जगह उसकी एजेंसी या वैयक्तिकता का सम्मान नहीं है। यह महिला को सुरक्षित रखने के लिए उसे बंद करने का मॉडल है, बजाय इसके कि उसे अधिकार व स्वतंत्रता देकर सशक्त किया जाये। आधुनिक समान नागरिक संहिता में धर्मनिरपेक्षता व लिंग समता का होना आवश्यक है, लेकिन इस समय जो उत्तराखंड में परोसा गया है, वह पुरातनपंथी पितृसत्तात्मक संहिता है, जो युवाओं की निजता में पुलिस, पड़ोसी बल्कि हर किसी को घुसने की छूट दे रहा है।

(लेखिका शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर

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